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________________ कारिका २५ ] ईश्वर - परीक्षा ९०. न ह्यनीशः स्वशरीरस्य शरीरान्तरेण विना कर्त्ता प्रतिवादिनः सिद्धो यमुदाहरणीकृत्याशरीरस्यापीशस्य स्वशरीरनिर्माणाय सामर्थ्यं समयंते, अनवस्था चापद्यमाना निषिध्यते पूर्वपूर्वशरीरापेक्षयाऽपि तदुत्तरोत्तरशरीरकरणे । किं तर्हि ? कार्मणशरीरेण सशरीर एवानीशः शरीरान्तरमुपभोगयोग्यं निष्पादयतीति परस्य सिद्धान्तः । तथा यदीशः पूर्वकर्मदेहेन स्वदेहमुत्तरं निष्पादयेत्तदा सकर्मैव स्यान्न शश्वत्कर्मभिरस्पृष्ट: सिद्ध्येत्, तस्यानीशवदनादिसन्तानवत्र्त्तना कर्मशरीरेण सम्बन्धसिद्धेः । सकलकर्मणोऽप्यपाये स्वशरीरकरणायोगान्मुक्तवत् । सर्वथा निःकर्मणो बुद्धीच्छाद्वेष प्रयत्नासम्भवस्यापि साधनात् । | पूर्वोक्तमुपसंहरते ] ततो नेशस्य देहोऽस्ति प्रोक्तदोषानुषङ्गतः । नापि धर्मविशेषोऽस्य देहाभावे विरोधतः ॥ २५ ॥ १३. ( कर्मविशिष्ट ) क्यों नहीं हो जायगा ? अपितु अवश्य हो जायगा । अर्थात् उस हालत में अज्ञ प्राणी और ईश्वर में कोई अन्तर नहीं रहेगा । $९० स्पष्ट है कि प्रतिवादी - जैनों के यहाँ अज्ञ प्राणीको अपने शरीरका कर्ता अन्य शरीर के बिना नहीं माना गया, जिसका आप उदाहरण देकर अशरीरी ईश्वरके अपने शरीर निर्माणसामर्थ्य का समर्थन करें और पूर्व पूर्व शरीरको लेकर आगे-आगे के शरीर बनानेमें आई अनवस्थाका परिहार करें। फिर जैनोंकी मान्यता क्या है ? कार्माण शरीर से सशरीरी होकर ही अज्ञप्राणी अपने उपभोगके योग्य दूसरे शरीरको निष्पन्न करता है अर्थात् बनाता है, इसप्रकार जैनोंका सिद्धान्त ( मान्यता ) है । उसीप्रकार यदि ईश्वर पूर्व कर्मशरीर से अपने अगले शरीरको बनाता है तो उसे कर्मा ( कर्मसहित ) ही होना चाहिये और इसलिये वह सदा कर्म रहित सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि अज्ञप्राणीकी तरह उसका अनादि सन्ततिसे चले आये कर्मशरीरके साथ सम्बन्ध सिद्ध है । यदि उसके समस्त ही कर्मोंका अभाव है—कोई भी कर्म उसके शेष नहीं है तो वह मुक्तजीवोंकी तरह अपने शरीरका निर्माण करनेवाला नहीं बन सकता है । और जिस प्रकार सर्वथा कर्मरहित जीवके शरीर सम्भव नहीं है उसी प्रकार बुद्धि ( क्षायोपशमिकज्ञान ), इच्छा और प्रयत्न ये तीनों भी उसके असम्भव हैं, यह समझ लेना चाहिये, क्योंकि ये तोनों भी बिना कर्म के सिद्ध नहीं: होते । उपसंहार - अतः निर्णीत हुआ कि उपर्युक्त दोषोंके कारण ईश्वरके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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