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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [ कारिका २२,२३,२४ म्भकावयवसन्निवेशविशिष्टत्वादचेतनोपादानत्वादित्यादे'हेतोरीश्वरसाधनाय प्रयुक्तस्येश्वरदेहेन व्यभिचारिता स्यात्, तस्यानीश्वरनिमित्तत्वेऽपि कार्यत्वादित्वसिद्धेरिति । ततो नेश्वरसिद्धिः सम्भाव्यते।
[शङ्करमतस्यालोचना] $ ८९. साम्प्रतं शङ्करमतमाशङ्क्य दूषयन्नाह
यथाऽनीशः स्वदेहस्य कर्ता देहान्तरान्मतः । पूर्वस्मादित्यनादित्वान्नानवस्था प्रसज्यते ॥२२॥ तथेशस्यापि पूर्वस्माद् देहाद् देहान्तरोद्भवात् । नानवस्थेति यो ब्रूयात्तस्यानोशत्वमीशितुः । २३॥ अनीशः कर्मदेहेनानादिसन्तानत्तिना ।
यथैव हि सकर्मा नस्तद्वन्न कथमीश्वरः ॥२४॥ यवसन्निवेशसे विशिष्ट हैं और अचेतन उपादानवाले हैं' इत्यादि हेतु जो ईश्वरके सिद्ध करनेके लिये दिये हैं, ईश्वरशरीरके साथ व्यभिचारी हैं । कारण, ईश्वरशरीर ईश्वरनिमित्तकारणजन्य न होनेपर भी कार्य आदि है । तात्पर्य यह कि ईश्वरशरीर कार्य आदि तो है किन्तु वह ईश्वरजन्य नहीं है और इसलिये ईश्वरसिद्धि में प्रयुक्त हुए 'कार्यत्व' आदि समस्त हेतु अनैकान्तिक हेत्वाभास हैं । अतः ईश्वरसिद्धि सम्भव नहीं है।
८९. अब शंकरके मतकी आशंका करके उसमें दुषण दिखाते हैं :जैसे अज्ञ प्राणी अपने शरीरका कर्त्ता पूर्ववर्ती दूसरे शरीरसे माना जाता है और वह पूर्ववर्ती शरीर अन्य पूर्ववर्ती तीसरे शरीरसे और इसप्रकार उसकी यह शरीरपरम्परा अनादि होनेसे उसमें अनवस्था दोष नहीं आता है वैसे ईश्वर भी अपने शरीरका कर्ता पूर्ववर्ती शरीरसे है और वह पूर्ववर्ती शरीर अन्य पूर्ववर्ती शरीरसे उत्पन्न होता है और इसलिये अनादि शरीरसन्तति सिद्ध होनेसे अनवस्था दोष प्रसक्त नहीं होता। इस प्रकार जो ईश्वरके शरीरका साधन करते हैं उनका ईश्वर अज्ञ प्राणीतुल्य हो जायगा । जिसप्रकार अज्ञ प्राणी अनादि सन्ततिसे चले आये कर्मरूप शरीरसे सहित होनेके कारण सकर्मा-कर्मयुक्त हमारे यहाँ माना जाता जाता है उसीप्रकार ईश्वरके अनादि शरीरपरम्परा माननेपर वह सकर्मा
1. द 'त्यादिहेतो'। 2. मु प स 'कार्यत्वादिसिद्ध' । मूले द प्रतिपाठः ।
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