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कारिका २१ ]
ईश्वर-परीक्षा स्वयमीश्वरस्य सर्वथा देहाविधानादिति मतम्, तदाऽपि' दूषणं दर्शयनाह
स्वयं देहाविधाने तु तेनैव व्यभिचारिता । कार्यत्वादेः प्रयुक्तस्य हेतोरीश्वरसाधने ॥२१॥ $ ८८. यदि हीश्वरो न स्वयं स्वदेहं विधत्ते तदाऽसौ तद्देहः कि नित्यः स्यादनित्यो वा ? न तावन्नित्यः, सावयवत्वात् । यत्सावयवं तदनित्यं दृष्टम्, यथा घटादि, सावयवश्वेश्वरदेहः, तस्मान्न नित्य इति बाधकसद्भावात् । यदि पुनरनित्यः तदा कायोऽसौ कुतः प्रादुर्भवेत् ? महेश्वरधर्मविशेषादेवेति चेत्, तहि सर्वप्राणिनां शुभाशुभशरीरादिकार्यं तद्धर्माधर्मेभ्य एव प्रादुर्भवेदिति किं कृतमीश्वरेण निमित्तकारणतया परिकल्पितेन ? तथा च विवादापन्नं तनुकरणभुवनादिकं बुद्धिमन्निमित्तकं कार्यत्वात् स्वारशरीरको बनाता है और न शरीरान्तरसे उत्पन्न करता है क्योंकि स्वयं वह शरीरका सर्वथा अनिर्माता है' तो इस कथनमें भी आचार्य दूषण दिखलाते हैं___यदि ईश्वर स्वयं देहका निर्माण नहीं करता और देह उसके मानी जातो है तो ईश्वरके सिद्ध करने में दिये गये कार्यत्व ( कार्यपना) आदि हेतु उसी ईश्वरदेहके साथ व्यभिचारी ( अनैकान्तिक) हैं। इसका खुलासा टीकाद्वारा नीचे किया जाता है
८८. यदि वास्तवमें ईश्वर स्वयं अपने शरीरको नहीं बनाता है तो यह बतलाना चाहिये कि वह शरीर नित्य है अथवा अनित्य ? नित्य तो उसे कहा नहीं जा सकता, क्योंकि वह सावयव है और जो सावयव होता है वह अनित्य देखा गया है जैसे घड़ा आदि । और सावयव ईश्वरशरीर है, इस कारण वह नित्य नहीं है। इसप्रकार ईश्वरशरीरको नित्य माननेमें यह बाधक विद्यमान है। अगर अनित्य कहो तो वह ईश्वरशरीर किससे उत्पन्न होता है ? यदि कहा जाय कि महेश्वरके धर्मविशेषसे ही वह उत्पन्न होता है तो समस्त प्राणियोंके अच्छे या बुरे शरीरादिक कार्य भी उनके धर्म-अधर्मसे ही उत्पन्न हो जायँ और इसलिये ईश्वरको निमित्तकारण कल्पित करनेसे क्या फायदा? अर्थात् कुछ भी नहीं। इसके अलावा, 'विचारकोटिमें स्थित शरीर इन्द्रिय और पृथिवी आदिक बुद्धिमानिमित्तकारणजन्य हैं क्योंकि कार्य हैं, अपने आरम्भक अव
1. स प स तदपि दूषयन्नाह' पाठः । 2. प मु 'कार्यो' । स 'कार्यम- । मूले व प्रतेः पाठो निक्षिप्तः।
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