________________
कारिका १८ ]
ईश्वर - परीक्षा
2
देहोनोत्तमेन भवितव्यम्, तमन्तरेण धर्मविशेषस्य योगविशेषस्य ' वाऽनुपपत्ते' रैश्वर्यायोगाद्वैराग्यायोगवत् कुतो जगन्निमित्तकारणत्वं सिद्ध्येदज्ञजन्तुवन्मुक्तात्मवच्च ?
[ ईश्वरावतारवादिमतमाह ]
$ ८४ मतान्तरमाशङ्क्य निराकुर्वन्नाहनिग्रहानिग्रहो देहं स्वं निर्मायान्यदेहिनाम् । करोतीश्वर इत्येतन्न परीक्षाक्षमं वचः ॥ १८ ॥
$ ८५. कस्यचिदुष्टस्य निग्रहं शिष्टस्य चानुग्रहं करोतीश्वरः प्रभुत्वात्, लोकप्रसिद्धप्रभुवत् । न चैवं नानेश्वरसिद्धिः, नानाप्रभूणामेकमहाप्रभुतन्त्रत्वदर्शनात् । तथा हि विवादाध्यासिता नानाप्रभव एकमहा
उत्तम शरीर भी होता है । उसी प्रकार महेश्वरका भी शरीर उत्तम होना चाहिए, क्योंकि उत्तम शरीर के बिना धर्मविशेष और योगविशेष ये दोनों ही नहीं बन सकते हैं । जैसे ऐश्वर्य के बिना वैराग्य नहीं बनता है । ऐसी दशामें ईश्वर अज्ञ प्राणी और मुक्त जीवकी तरह जगत्का निमित्तकारण कैसे सिद्ध हो सकता है ? तात्पर्य यह कि जिस प्रकार अज्ञ प्राणी और मुक्त जीव जगत् के निमित्तकारण नहीं हैं उसी प्रकार ईश्वर भी जगत्का निमित्तकारण सिद्ध नहीं होता ।
८७
$ ८४. आचार्य अब दूसरे ईश्वरावतारवादिमतकी आशङ्का करके उसका निराकरण करते हुए कहते हैं :
'ईश्वर अपने शरीरका निर्माण करके दूसरे देहधारियों के निग्रह और अनुग्रह - दण्ड और उपकारको करता है' यह ईश्वरावतारवादी कहते हैं किन्तु उनका यह कथन परीक्षायोग्य नहीं है - परीक्षा करनेपर ठहरता नहीं है ।
$ ८५. शङ्का - ईश्वर किसी दुष्ट प्राणीको दण्ड और किसी सज्जनका उपकार दोनों करता है, क्योंकि वह प्रभु है - मालिक है, जैसे लोकमें प्रसिद्ध प्रभु | इससे यह नहीं समझना चाहिये कि इस तरह अनेक ईश्वर सिद्ध हो जायेंगे, क्योंकि नाना प्रभु एक महाप्रभुके अधीन देखे जाते हैं ।
1. द 'चा' |
2. मु स प 'त्तिः' ।
3. व 'वैराग्यायोग इति' ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org