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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका १७ चनलक्षणकार्यकरणासिद्धेः । सत्येव तीर्थकरत्वनामपुण्यातिशये दर्शनविशुद्ध्यादिभावनाविशेषनिबन्धने समुत्पन्नकेवलज्ञानस्योदयप्राप्ते प्रवचनाख्यतीर्थकरणप्रसिद्धः। प्रक्षीणाशेषकर्मणः सिद्धस्य वाक्प्रवृत्तेरसम्भवातीर्थकरत्वनामपुण्यातिशयापाये केवलिनोऽपि वाकप्रसिद्ध्यसम्भव वदिति धर्मविशेषविशिष्ट एवोत्तमसंहननशरीरः केवली प्रवचनाख्यतीर्थस्य कर्ता प्रसिद्ध इति कथमसौ निदर्शनं महेश्वरस्यापि ?
तथा धर्मविशेषोऽस्य योगश्च यदि शाश्वतः । तदेश्वरस्य देहोऽस्तु योग्यन्तरवदुत्तमः ॥१७॥
६.८३. यस्य हि धर्मविशेषो योगविशेषश्च महर्षेर्योगिनः प्रसिद्धस्तस्य देहोऽप्युत्तम एवायोगिजनदेहाद्विशिष्टः प्रसिद्धस्तथा महेश्वरस्यापि
तीर्थप्रवर्तन नहीं करते हैं किन्तु दर्शनविशुद्धि आदि सोलह विशेष आध्यात्मिक भावनाओंसे उत्पन्न तीर्थंकरनामक पुण्यकर्मका उदय होनेपर और केवलज्ञान ( परिपूर्ण ज्ञान ) के प्राप्त हो जानेपर ही वे मोक्षमार्गोपदेशरूप तीर्थका प्रवर्तन करते हैं। और इसीसे जो समस्त कर्मोसे रहित सिद्ध ( मुक्त) परमात्मा हैं उन्हें तीर्थप्रवर्तक अर्थात् मोक्षमार्गोपदेशक नहीं माना गया है क्योंकि उनके तीर्थंकरनामा पुण्यकर्मका अभाव ( नाश) हो जाता है। यद्यपि वे केवली (पूर्ण ज्ञानी ) हैं तथापि उनके तीर्थकरकर्मके नाश हो जानेसे वचनप्रवृत्ति सम्भव नहीं है। अतः धर्मविशेषसे विशिष्ट और उत्तम संहननयुक्त शरीरवाले अरहन्त केवली ही मोक्षमार्गोपदेशरूप तीर्थके कर्ता (प्रवर्तक) हैं। और इसलिये उनका उदाहरण महेश्वरकी सिद्धिमें कैसे दिया जा सकता है ? अर्थात् नहीं दिया जा सकता।
इसी प्रकार यदि ईश्वरके शाश्वत धर्मविशेष और शाश्वत योग आप मानें तो अन्य योगियोंकी तरह उसके उत्तम शरीर भी स्वीकार करना चाहिये।
$८३. प्रसिद्ध है कि जिस महान् ऋषि-योगीके धर्मविशेष और योगविशेष होता है उसके अयोगिजनोंके शरीरोंकी अपेक्षा विशिष्ट और
1. मु 'कार्यकारणासिद्धः'। 2. व 'सम्भवादिति'। 3. समु 'महर्षियोगिनः' ।
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