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________________ कारिका १२] ईश्वर-परीक्षा ७९ तदभावे भावविरोधादिति । बुद्धीच्छाप्रयत्नमात्रादीश्वरो निमित्तं कायादिकार्योत्पत्तौ कुम्भायुत्पत्तौ कुम्भकारवदिति न व्यवतिष्ठते । $ ७७. स्यादाकूतं ते-'विवादापन्नः पुरुषविशेषः प्रकृष्टज्ञानयोगी सदैवैश्वर्ययोगित्वात्, यस्तु न प्रकृष्टज्ञानयोगी नासौ सदेवैश्वर्ययोगी, यथा संसारी मुक्तश्च, सदैवैश्वर्ययोगी च भगवान्, तस्मात्प्रकृष्टज्ञानयोगी सिद्धः । स च प्राणिनां भोगभूतये कायादिकार्योत्पत्तौ सिसृक्षावान् प्रकृष्टज्ञानयोगित्वात्, यस्तु न तथा स न प्रकृष्टज्ञानयोगी, यथा संसारी मुक्तश्च, प्रकृष्टज्ञानयोगी चायम्, तस्मात्तथेति तस्येच्छावत्वसिद्धिः । तथा च प्रयत्नवानसौ सिसृक्षावत्वात्, यो यत्र सिसृक्षावान्, स तत्र प्रयत्नवान् दृष्टः, यथा घटोत्पत्ती कुलाल:, सिसक्षावांश्च तनुकरणभवनादो भगवान्, तस्मात्प्रयत्नवानिति ज्ञानेच्छाप्रयत्नवत्वसिद्धिः। निःकर्मणोऽपि सदाशिवस्याशरीरस्यापि तन्वादिकार्योत्पत्ती निमित्तकारणत्वसिद्धर्मोक्षमार्गप्रणीतावपि तत्कारणत्वसिद्धिः, बाधकाभावादिति'। नहीं बन सकता है क्योंकि वह इच्छापूर्वक होता है। और इसलिए जो यह कहा था कि 'बुद्धि, इच्छा और प्रयत्न इन तीनोंसे ईश्वर शरीरादिकार्योंकी उत्पत्तिमें निमित्तकारण होता है, जैसे घटादिककी उत्पत्तिमें कुम्हार' वह सिद्ध नहीं होता। ७७. वैशेषिक-हमारा अभिप्राय यह है कि विचारकोटिमें स्थित पुरुषविशेष उत्कृष्ट ज्ञानसे सम्पन्न है क्योंकि वह सदैव ऐश्वर्यसे युक्त है, जो उत्कृष्टज्ञानसे सम्पन्न नहीं है वह सदैव ऐश्वर्यसे युक्त भी नहीं है, जैसे संसारी और मुक्त । सदैव ऐश्वर्यसे युक्त भगवान् हैं, इस कारण उत्कृष्टज्ञानसे सम्पन्न हैं। तथा, भगवान् जीवोंके भोगों और विभतिके लिए अथवा भोगानुभवके लिए शरीरादिक कार्योंकी उत्पत्ति में इच्छावान् हैं क्योंकि उत्कृष्टज्ञानसे युक्त हैं जो उक्त प्रकारकी इच्छावाला नहीं है वह उत्कृष्टज्ञानसे युक्त नहीं है, जैसे संसारी और मुक्त। और उत्कृष्टज्ञानसे युक्त भगवान् हैं, इसलिये उक्त प्रकारकी इच्छावान् हैं। इस तरह ईश्वरके इच्छा सिद्ध होती है। और वह प्रयत्नवान् हैं क्योंकि सृष्टिकी इच्छावान् हैं जो जिस कार्य में इच्छावान् होता है वह उस कार्यमें प्रयत्नवान् होता है, जैसे घटकी उत्पत्तिमें कुम्हार और शरीरादिककी उत्पत्तिमें इच्छावान् भगवान् हैं, इस कारण प्रयत्नवान् हैं। इस प्रकार ईश्वरके ज्ञान, इच्छा और प्रयत्न तीनों सिद्ध हैं, अतएव अशरीरी और कर्मरहित होनेपर भी महेश्वर शरीरादिकी उत्पत्ति तथा मोक्षमार्गके प्रणयनमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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