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________________ आप्तपरीक्षा - स्वोपज्ञटीका [ कारिका १२ $ ७८. तदेतदप्यसमञ्जसम्; सर्वथा निःकर्मणः कस्यचिदैश्वर्यविरोधात् ॥ तथा हि-विवादाध्यासितः पुरुषो नैश्वर्ययोगी निःकर्मत्वात्, यो यो निकर्मा सस नैश्वर्य योगी, यथा मुक्तात्मा, निःकर्मा चायम्, तस्मान्नैश्वर्य योगी । नत्वेनोमलैरेवास्पृष्टत्वादनादियोगजधर्मेण योगादीश्वरस्य निः कर्मत्वमसिद्धमिति चेत्, न तह सदामुक्तोऽसौ धर्माधर्मक्षयादेव मुक्तिप्रसिद्धे । शश्वत्क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टत्वादनादियोगजधर्मसम्बन्धेऽपि जीवनमुक्तेरविरोध एव, वैराग्यैश्वर्यज्ञानसम्बन्धेऽपि तदविरोधवदिति चेत्, तहि परमार्थतो मुक्तामुक्तस्वभावता महेश्वरस्याभ्युपगता स्यात्, तथा चानेकान्त सिद्धिदुर्निवारा । एतेनानादिबुद्धिमन्नि ८० निमित्तकारण अच्छी तरह सिद्ध है, उसमें कोई बाधा नहीं है ? $७८. जैन - यह कथन भी अयुक्त है, क्योंकि जो सर्वथा कर्मरहित है उसके ऐश्वर्य नहीं बन सकता है। इसका खुलासा इस प्रकार हैविवादस्थ पुरुष ऐश्वर्ययुक्त नहीं है, क्योंकि कर्मरहित है, जो जो कर्मरहित होता है वह वह ऐश्वर्ययुक्त नहीं होता है, जैसे मुक्त जीव । और कर्मरहित ईश्वर है, इस कारण ऐश्वर्ययुक्त नहीं है। 1 वैशेषिक – ईश्वर पापमलसे ही अस्पृष्ट- रहित है, अनादियोगजधर्मसे - तो वह युक्त है । अतः निः कर्मत्व ( कर्मरहितपना ) हेतु असिद्ध है ? जैन - यदि आप ईश्वरको अनादियोगजधर्मसे युक्त मानते हैं तो फिर वह सदामुक्त नहीं ठहरेगा, क्योंकि धर्म और अधर्मके सर्वथा नाशसे ही मुक्ति मानी गयी है । वैशेषिक - ईश्वर क्लेश, कर्म ( पुण्य-पापादि ), विपाक और आशय इनसे ही सदा रहित है । अतः उसके अनादियोगजधर्म का सम्बन्ध रहनेपर भी जीवन्मुक्तिका कोई विरोध नहीं है, जैसे वैराग्य, ऐश्वर्य और ज्ञानका सम्बन्ध होनेपर भी जीवन्मुक्तिका विरोध नहीं है ? जैन- यदि आप उक्त प्रकारसे ईश्वरके जीवन्मुक्तिका समर्थन करते हैं तो उसको वास्तविक मुक्त और अमुक्त दोनों स्वभाववाला स्वीकार करना पड़ेगा और उस हालत में हमारे अनेकान्तकी सिद्धि अनिवार्य रूपसे मानना पड़ेगी । तात्पर्य यह कि ईश्वरको क्लेशादिसे रहित मानने से मुक्त और अनादियोगजधर्मका सम्बन्ध स्वीकार करनेसे अमुक्त दोनों रूप स्वीकार करना पड़ेगा और तब 'सदा ही वह मुक्त हैं इस सिद्धान्तका विरोध अवश्य आवेगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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