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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ९ $ ६०. अथ मतमेतत्-यत्र यदा यथा यत्कार्यमुत्पित्सु तत्र तदा तथा तदुत्पादनेच्छा महेश्वरस्यैकैव तादशी समुत्पद्यते । ततो नानादेशेष्वेकदेशे च क्रमेण युगपच्च तादशमन्यादशं च तन्वादिकार्य प्रादुर्भवन्न विरुद्ध्यत इति; तदप्यसम्भाव्यम्; क्वचिदेकत्र प्रदेशे समुत्पन्नायाः सिसृक्षाया दविष्टदेशेषु विभिन्नेषु नानाविधेषु नानाकार्यजनकत्वविरोधात् । अन्यथा तदसर्वगतत्वेऽपि देशव्यतिरेकानुपपत्तेः। यदि हि यद्देशा सिसृक्षा तद्देशमेव कार्यजन्म नान्यदेशमिति व्यवस्था स्यात्, तदा देशव्यतिरेक: सिदध्येन्नान्यथेति सिसक्षाया न व्यतिरेकोपलम्भो महेश्वरवत् । व्यतिरेकाभावे च नान्वयनिश्चयः शक्यः कत्तुम् । सतीश्वरे तन्वा. दिकार्याणां जन्मेत्यन्वयो हि पुरुषान्तरेष्वपि समानः, तेष्वपि सत्सु
६०. शङ्का-'जहाँ जब जैसा जो कार्य उत्पन्न होना होता है वहाँ तब वैसा उस कार्यको उत्पन्न करनेकी महेश्वरके एक ही वैसी इच्छा उत्पन्न होती है। इसलिये नाना जगह और एक जगह क्रमसे और एक साथ वैसे और अन्य प्रकारके शरीरादिक कार्योंके उत्पन्न होनेमें कोई विरोध नहीं है । मतलब यह कि महेश्वरके एक विशेष जातिकी इच्छा होती है जो सर्वत्र यथाक्रम और यथायोग्य ढंगसे शरीरादिक कार्योंको उत्पन्न करती रहती है। अतः विभिन्न जगहोंपर क्रमशः या युगपत् शरीरादिक नानाकार्योंके उत्पन्न होनेमें कोई बाधा नहीं है ?
समाधान-यह भी असम्भव है, क्योंकि किसी एक जगह उत्पन्न हुई महेश्वरेच्छा दूरवर्ती विभिन्न नाना जगहोंमें नानाशरीरादि कार्यों को उत्पन्न नहीं कर सकती है। यदि करेगी, तो अव्यापक होनेपर भी देशव्यतिरेक नहीं बन सकेगा अर्थात् किसी देशमें इच्छाके अभावसे शरीरादि कार्योंका अभावरूप व्यतिरेक प्रदर्शित नहीं किया जा सकेगा, क्योंकि वहाँ कार्य सदैव होते रहेंगे। हाँ, यदि यह व्यवस्था हो कि 'जिस जगह महेश्वरकी सृष्टि-इच्छा उत्पन्न होती है उसो जगह शरीरादि कार्य उत्पन्न होता है, अन्य जगह नहीं, तो देशव्यतिरेक बन जायगा, अन्यथा नहीं। किन्तु उस हालतमें महेश्वरके अनेक सष्टि-इच्छाएँ मानना पड़ेंगी, जो आपको इष्ट नहीं हैं । अतः महेश्वरकी तरह महेश्वरकी इच्छाके साथ भी व्यतिरेक नहीं बनता है और जब व्यतिरेक नहीं बनता तो अन्वय ( कारणके होनेपर कार्यका होना ) का निश्चय करना भी शक्य नहीं है। 'ईश्वरके होनेपर शरीरादि कार्योंकी उत्पत्ति होती है' ऐसा अन्वय दूसरे
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