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कारिका ९] ईश्वर-परीक्षा
५७ त्प्रकृततन्वादिकार्यानुदय एव' स्यात् । यदि पुनः प्रकृततन्वादिकार्योत्पत्तौ महेश्वरस्य सिसृक्षोत्पद्यते साऽपि तत्पूर्वसिसृक्षात इत्यनादिसिसक्षासन्तति नवस्थादोषमास्कन्दति सर्वत्र कार्यकारणसन्तानस्यानादित्वसिद्धेझैजाङ्करादिवदित्यभिधीयते तदा युगपन्नानादेशेष तन्वादिकार्यस्योत्पादो नोपपद्येत, यत्र यत्कार्योत्पत्तये महेश्वरसिसृक्षा तत्रैव तस्य कार्यस्योत्पत्तिघटनात् । न च यावत्सु देशेष यावन्ति कार्याणि सम्भूष्णूनि तावन्त्यः सिसक्षास्तस्येश्वरस्य सकदुपजायन्त इति वक्तु शक्यम्, युगपदनेकेच्छाप्रादुर्भावविरोधात्, अस्मदादिवत् । यदि पुनरेकैव महेश्वरसिसृक्षा युगपन्नानादेशकार्यजननाय प्रजायत इतीष्यते तदा क्रमतोऽनेकतन्वादिकार्योत्पत्तिविरोधः, तदिच्छायाः शश्वदभावात्।
इच्छा भी अन्य पूर्व इच्छासे इस तरह कहीं भी अवस्थान न होगा। और दूसरी-तीसरी आदि इच्छाओंके उत्पन्न करने में ही महेश्वरके लगे रहनेपर प्रकृत शरीरादि कार्य कभी भी उत्पन्न न हो सकेंगे।
यदि कहा जाय कि प्रकृत शरीरादिक कार्योंको उत्पन्न करने के लिये महेश्वरके जो सिसृक्षा उत्पन्न होती है वह सिसृक्षा पूर्व सिसृक्षासे उत्पन्न होती है, इस प्रकार अनादिसिसक्षापरम्परा माननेसे अनवस्था दोष नहीं आता, क्योंकि सभी मतोंमें कार्यकारणपरम्परा अनादि मानी गयी है, जैसे बीज और अंकूर की परम्परा अनादि स्वीकार की गयी है तो एकसाथ नाना जगह शरीरादिकोंकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है, जहाँ जिस कार्यको उत्पन्न करने के लिये महेश्वरकी इच्छा उत्पन्न होगी वहीं वह शरीरादिक कार्य उत्पन्न होगा। और यह कहा नहीं जा सकता कि 'समस्त देशोंमें जितने कार्य उत्पन्न होनेवाले हैं उतनी सिसृक्षाएँ महेश्वरके एक साथ उत्पन्न हो जाती हैं क्योंकि एक-साथ महेश्वरके अनेक इच्छाओंकी उत्पत्ति असम्भव है, जैसे हम लोगोंके एक-साथ नाना इच्छाएँ उत्पन्न होना असम्भव है। अगर कहें कि 'एक ही महेश्वरेच्छा एक साथ नाना-देशवर्ती शरीरादि कार्योंको उत्पन्न करनेके लिए पैदा होती है तो क्रमसे अनेक शरोरादि कार्य उत्पन्न नहीं हो सकते, क्योंकि वह महेश्वरे. च्छा हमेशा नहीं रहतो है। अर्थात् ईश्वरेच्छाको अनित्य होनेसे क्रमशः नानाकार्य उत्पन्न नहीं हो सकते हैं ।
1. द 'नुदयश्च'। 2. मु स प 'तत्र तस्यैव' । 3. मु 'कार्ये जननाय'।
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