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________________ आप्तपरोक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका २ निर्माणशक्तिविशिष्टस्य बुद्धिमन्निमित्तत्वसामान्यस्य साध्यस्य तत्र सद्धावात्। सिद्धे च बुद्धिमनिमित्तत्वसामान्ये किमयं बुद्धिमान् हेतुः सशरीरोऽशरीरो वेति विप्रतिपत्तौ तस्याशरीरत्वं साध्यते, सशरीरत्वे बाधकसद्भावात्। तच्छरीरं हि न तावन्नित्यमनादि, सावयवत्वादस्मदादिशरीरवत् । नाप्यनित्यं सादि, तदुत्पत्तेः पूर्वमीश्वरस्याशरीरत्वसिद्धेः । शरीरान्तरेण सशरीरत्वेऽनवस्थाप्रसंगात् । तथा किमसौ सर्वज्ञोऽसवज्ञो वेति विवादे सर्वज्ञत्वं साध्यते । तस्यासर्वज्ञत्वे समस्तकारकप्रयोक्तृत्वानुपपत्तेस्तन्वादिकारणत्वाभावप्रसंगात् । तन्वादिसकलकारकाणां परिज्ञानाभावेऽपि प्रयोक्तत्वे तन्वादिकार्यव्याघातप्रसंगात् । कुबिन्दादेर्वस्त्रादिकारकस्याप मान रहता है। इस तरह सामान्यतः बुद्धिमान् निमित्तकारणके सिद्ध हो जानेपर और उसमें 'वह बुद्धिमान् कारण क्या शरीरवान् है या शरीररहित है' इस प्रकारको शंका होनेपर उसे हम अशरीरी-शरीररहित सिद्ध करते हैं क्योंकि सारीरी-शरीरवान् माननेमें अनेक बाधाएँ उपस्थित होती हैं । कारण, वह शरीर नित्य एवं अनादि तो बन नहीं सकता, क्योंकि वह सावयव ( कार्य ) है जैसे हम लोगोंका शरीर । अनित्य एवं सादि भी वह नहीं बन सकता है क्योंकि उसकी उत्पत्तिके पहले ईश्वर अशरीरी है । यदि अन्य दूसरे शरीरसे उसे सशरीरी-शरीरवान् कहा जाय तो अनवस्था दोषका प्रसङ्ग आता है क्योंकि पूर्व-पूर्व अनेक शरीर कल्पित करना पड़ेंगे और इस तरह कहीं भी अवस्थान नहीं हो सकेगा। तथा 'वह बुद्धिमान कारण क्या सर्वज्ञ है या असर्वज्ञ है' इस तरहके विवाद (प्रश्न ) होनेपर उसे सर्वज्ञ सिद्ध करते हैं, क्योंकि यदि वह असवज्ञ होगा तो वह समस्त कारकों ( कारणों) का प्रयोक्ता-सुन्दर और उचित योजना करने वाला नहीं हो सकता है और जब प्रयोक्ता नहीं हो सकेगा तो वह शरीरादिकका कारण नहीं बन सकेगा । यदि उसे शरीरादि कार्यों के समग्र कारकोंका परिज्ञान न होनेपर भी प्रयोक्ता मानें तो शरोरादि कार्य विरुद्ध भी उत्पन्न हो जायेंगे अर्थात् शरीरादिके समस्त कारकोंका ज्ञान न होनेसे उसके द्वारा शरीरादिककी रचना बेडौल, अव्यवस्थित, सुन्दरताहीन और प्रकृतिविरुद्ध पूर्णतः सम्भव है । जिसप्रकार जुलाहा आदिको वस्त्रादिके समस्त कारकोंका ज्ञान न होनेपर वस्त्रादि कार्य भहे, असुन्दर और अक्रमतन्तुविन्यासवाले उत्पन्न होते हैं। और यह निश्चित है कि ईश्वरके बनाये शरीरादिकार्यों में कभी भी बेडौलपना अथवा असुन्दरता सम्भव नहीं है क्योंकि महेश्वरके इच्छित कार्यके जितने आवश्यक कारण हैं उन सबमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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