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कारिका ९]
ईश्वर-परीक्षा इति श्रुतेः सद्भावात् । तथा व्यासवचनं च
"अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ।।"
[महाभा०, वनपर्व, ३०१२८ ] $ ५३. इति पक्षस्यानुग्राहकमेव न तु बाधकम् । ततो न कालात्ययापदिष्टो हेतुः, अबाधितपक्षनिर्देशानन्तरं प्रयुक्तत्वात्। तत एव न सत्प्रतिपक्षः, बाधकानुमानाभावादित्यनवद्य कार्यत्वं साधनं तन्वादीनां बुद्धिमन्निमित्त [क]त्वं साधयत्येव ।
$ ५४. यदप्युच्यते कैश्चित् -बुद्धिमनिमित्त[क]त्वसामान्ये साध्ये तन्वादीनां सिद्धसाधनमनेकतदुपभोक्तृबुद्धिमन्निमित्त[क]त्वसिद्धेः । तेषां
द्वारा स्वर्ग और पृथिवी आदिकी रचना करता है, जो विश्व-चक्षु-पूर्णदर्शी है, विश्वमुख-पूर्ण वक्ता है, विश्वबाहु-सर्वसामर्थ्य सम्पन्न है और विश्वतः पात्-सर्वव्यापक है ।" [श्वेता०, ३१३ ] यह श्रुति-प्रमाण उक्त पक्षका साधक है। तथा व्यासका भी कथन है कि
“यह अज्ञ और शक्तिहीन प्राणी अपने सुख-दुःखके अनुसार ईश्वरप्रेरित होकर स्वर्ग अथवा नरकको जाता है।" [ महाभारत, वनपर्व, अध्या० ३०, श्लो० २८ ]
५३. वह कथन भी उक्त पक्षका पोषक है, बाधक नहीं है । अतएव हेतु कालात्ययापदिष्ट-बाधितविषय नामका हेत्वाभास नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे अबाधित पक्ष-निर्देशके बाद उसका प्रयोग हआ है। और इसलिए सत्प्रतिपक्ष नामका हेत्वाभास भी नहीं है, क्योंकि प्रतिपक्षी अनुमान का अभाव है-सद्भाव नहीं है। इस तरह 'कार्यत्व' हेतु पूर्ण निर्दोष है और इसलिए वह शारीरादिकको बुद्धिमानिमित्तकारणजन्य अवश्य सिद्ध करता है।।
५४. शङ्का-'प्रस्तुत अनुमानमें यदि आप शरीरादिकको सामान्य (जिसकिसी) बुद्धिमानिमित्तकारणजन्य सिद्ध करते हैं तो सिद्धसाधन है, १. असमर्थः। २. नरकम् । ३. जैनादिभिः ।
1. मु प प्रतिषु 'इति' पाठो नास्ति । 2. म 'त्व' ।
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