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________________ ४८ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ९ त्वप्रसङ्गः । न च दृष्टकर्तृकत्वादृष्टकर्तुकत्वाभ्यां बुद्धिमन्निमित्तत्वेतरत्वसिद्धिः साधीयसी, तदविनाभावाभावात् । न ह्यदृष्टकर्तृकत्वमबुद्धिमन्तिमित्तत्वेन व्याप्तम्, जोर्णप्रासादादेरदृष्टकर्तृ कस्यापि बुद्धिमन्निमित्तत्वसिद्धेरिति न दृष्टकत कविलक्षणत्वमबुद्धिमन्निमित्तत्वं साधयेत् । यतोऽनुमानबाधितः पक्षः स्यात् कालात्ययापदिष्टं च साधनमभिधीयते । नाप्यागमेन प्रकृतः पक्षो बाध्यते तत्साधकस्यैवागमस्य प्रसिद्धेः। तथा "विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतो मुखो विश्वतो बाहुरुत विश्वतः पात् । सम्बाहृभ्यां धमति सम्पतत्रैवाभूमी जनयन् देव एकः।" [श्वेताश्वत० ३।३] जायें उन्हें अबुद्धिमानिमित्तकारणजन्य ( बिना बुद्धिमानिमित्तकारणके उत्पन्न ) सिद्ध करना उचित नहीं है, क्योंकि उनका उनके साथ अविनाभाव नहीं है । निश्चय ही अदृष्टकर्तृकता ( कर्ताका नहीं देखा जाना ) अबद्धिमन्निमित्तत्ता-( बुद्धिमान्कारणजन्यता-बुद्धिमानिमित्तकारणसे जन्य न होना ) के साथ अविनाभूत नहीं है अर्थात् अदृष्टकर्तृकताकी अबद्धिमन्निमित्तताके साथ व्याप्ति नहीं है, क्योंकि पुराने मकान आदिके कर्ता नहीं देखे जाते हैं फिर भी वे बुद्धिमानिमित्तकारण ( मनुष्यदि ) जन्य माने जाते हैं । इसलिए 'जिन मकानादिके कर्ता देखे जाते हैं उनसे भिन्न हैं' इस हेतुद्वारा 'बुद्धिमान्निमित्तकारणजन्य नहीं हैं, इसका साधन नहीं हो सकता है। और जिससे पक्ष अनुमानबाधित होता और हेतु कालात्ययापदिष्ट कहा जाता। ___ आगमसे भी प्रकृत पक्ष बाधित नहीं होता प्रत्युत वह उसका साधक है। वह इस प्रकार है : "कोई एक परमात्मा प्राणियोंके पुण्य और पापके अनुसार परमाणुओं __1. द त्वेतरसिद्धिः '। 2. द धीयते'। १. सर्वज्ञ इत्यर्थः। २. सकलशास्त्रप्रणेता। ३. सर्वकर्ता । ४. सर्वगतः । ५. पुण्यपापाभ्याम् । ६. परमाणुभिः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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