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आप्तपरोक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ५ [ उक्तशङ्कायाः सयुक्त्या निराकरणम् ] प्रसिद्धः सर्वतत्त्वज्ञस्तेषां तावत्प्रमाणतः ।
सदाविध्वस्तनिःशेषबाधकात्स्वसुखादिवत् ॥७॥ ४५. यदि नाम विश्वतत्त्वज्ञः प्रमाणात्सर्वदाविध्वस्तबाधकादात्मसुखादिवत्प्रसिद्धो यौगानां तथापि किमिष्टं भवतां सिद्धं भवेदित्याह
ज्ञाता यो विश्वतत्त्वानां स भेत्ता कर्मभूभृताम् । भवत्येवान्यथा तस्य विश्वतत्त्वज्ञता कुतः ? ॥८॥
४६. इति स्याद्वादिनामस्माकं कर्मभूभद्भतत्वं मुनीन्द्रस्येष्टं सिद्ध भवतीति वाक्यार्थः। तथा हि-भगवान परमात्मा कर्मभूभतां भेत्ता भवत्येव, विश्वतत्त्वानां ज्ञातृत्वात् । यस्तु न कर्मभूभृतां भेत्ता स न विश्वतत्त्वानां ज्ञाता, यथा रथ्यापुरुषः, विश्वतत्त्वानां ज्ञाता च भगवान् निर्बाधबोधात्सिद्धः, तस्मात्कर्मभूभतां भेत्ता भवत्येवेति केवलव्यतिरेकी हेतुः, साध्याव्यभिचारात् । न तावदयमसिद्धः प्रतिवादिनो वादिनो वा, ताभ्या
४५. शङ्का-यदि समस्तबाधकामावरूप प्रमाणसे अपने सुखादिककी तरह हमारे यहाँ ( योगोंके ) आप्त सर्वपदार्थोका ज्ञाता अर्थात सर्वज्ञ प्रसिद्ध है, तो इससे आप ( जैनों) को क्या इष्टसिद्धि होती है ?
समाधान-जो सर्वपदार्थोंका ज्ञाता होता है वह कर्मपर्वतोंका भेदनकर्ता अवश्य होता है। यदि वह कर्मपर्वतोंका भेदनकर्ता न हो तो उसके सर्वपदार्थों का ज्ञातापन कैसे बन सकता है ? तात्पर्य यह कि यदि आप आप्तको सर्वज्ञ मानते हैं तो कर्मपर्वतोंका भेदनकर्ता भी उसे अवश्य मानना पड़ेगा; क्योंकि कर्मपर्वतोंको नाश किये बिना सर्वज्ञता नहीं बनती है।
४६. अतएव आपके सर्वज्ञाभ्युपगमसे आप्तमें हम जैनोंके इष्ट कर्मपर्वतोंके भेदनकर्तापनकी सिद्धि होती है। इसका खुलासा इस प्रकार है:
'भगवान् परमात्मा कर्मपर्वतोंके भेदनकर्ता अवश्य होते हैं क्योंकि वे सर्वज्ञ हैं। जो कर्मपर्वतोंका भेदनकर्ता नहीं होता वह सर्वज्ञ नहीं होता, जैसे गलीमें फिरनेवाला आवारा पुरुष (पागल ) और भगवान् परमात्मा समस्तबाधकाभावरूप प्रमाणसे सर्वज्ञ सिद्ध हैं। इसलिये वे कर्मपर्वतोंके भेदनकर्ता अवश्य हैं।' यह केवलव्यतिरेकी हेतु है और साध्यका अव्यभिचारी-व्यतिरेकव्याप्तिविशिष्ट है। यह हेतु वादी अथवा प्रतिवादी
1. द प्रसिद्ध'। 2. मु 'निर्बाधबोधसिद्धः ।
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