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कारिका ५ ]
ईश्वर-परीक्षा
$ ४२. एतेन " प्रणम्य हेतुमीश्वरं मुनिं कणादमन्वतः " [ प्रशस्तपा० पृ० १ ] इति परापरगुरुनमस्कारकरणमपास्तम्, ईश्वर कणादयोराप्तव्यवच्छेदात् । तयोर्यथावस्थितार्थज्ञानाभावात्तदुपदेशाप्रामाण्या बित्यलं विस्तरेण । विश्वतत्त्वानां ज्ञातुः कर्मभूभृतां भेत्तुरेव मोक्षमार्गप्रणयनोपपत्तेराप्तत्वनिश्चयात् ।
[ आप्तस्य कर्मभूभृद्भेतृत्वमसिद्धमित्याशङ्कते ] तत्रासिद्धं मुनीन्द्रस्य भेतृत्वं कर्मभूभृताम् । ये वदन्ति विपर्यासात्,
९ ४३. तत्र तेषु मोक्षमार्गप्रणेतृत्व- कर्मभूभृद्भेतृत्व विश्वतत्त्वज्ञातृत्वेषु कर्मभूभृतां भेतृत्वमसिद्धं मुनीन्द्रस्य, विपर्यासात् तदभेतृत्वात् कर्मभूभृदसम्भवात्सदाशिवस्य ये वदन्ति यौगाः,
तान् प्रत्येवं प्रचक्ष्महे ॥ ६ ॥ $ ४४. तान् प्रत्येवं वक्ष्यमाणप्रकारेण प्रचक्ष्म प्रवदाम इत्यर्थः ।
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$ ४२. इस उपर्युक्त कथनसे 'जगत् के कारणभूत ईश्वरको और उनके बादमें कणाद मुनिको प्रणाम करता हूँ ।' [ प्रश० पृ० १ ] यह प्रशस्तपादका पर और अपर गुरुओंको नमस्कार करना निराकृत हो जाता है, क्योंकि ईश्वर और कणादको पदार्थोंका यथार्थ ज्ञान नहीं है और इसलिये उनका उपदेश अप्रमाण है । अतः अब और विस्तार नहीं किया जाता है, क्योंकि विश्वतत्त्वोंके ज्ञाता और कर्मपर्वतोंके भेदनकर्ता - में ही मोक्षमार्गका उपदेशकपना उपपन्न होनेसे उसीमें आप्तपना प्रमाणित होता है ॥ ५ ॥
$ ४३. शङ्का - उक्त मोक्षमार्गका उपदेशकपन, विश्वतत्त्वोंका ज्ञातापन, और कर्मपर्वतोंका भेदनकर्तापन इन तीन विशेषणों में से आप्त में कर्मपर्वतों का भेदनकर्तापन असिद्ध है; क्योंकि आप्तके कर्मपर्वतोंका अभाव होने से वह उनका भेदनकर्त्ता नहीं है । तात्पर्य यह कि आप्त ( ईश्वर ) के जब कर्म ही नहीं हैं तब उसे उनका भेत्ता ( भेदन करनेवाला ) बतलाना संगत नहीं है और इसलिये उक्त विशेषण आप्त में स्वरूपासिद्ध है ?
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$ ४४. समाधान- - उन ( नैयायिक और वैशेषिकों ) की यह शङ्का युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि – ॥ ६ ॥
उनके यहाँ समस्त बाधकाभावरूप प्रमाणसे अपने सुखादिककी तरह आप्त सर्वपदार्थों का ज्ञाता अर्थात् सर्वज्ञ प्रसिद्ध है ।
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