________________
आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका
[कारिका ५
लक्षणमित्युच्यते, तदाऽपि किं तद् द्रव्यलक्षणयोर्द्रव्यलक्षणत्वमेकम् ? न तावत् सामान्यम्, तस्य द्रव्य-गुण-कर्माश्रयत्वात् । न चैते द्रव्यलक्षणे द्रव्ये, स्वेष्टविघातात्। नापि गुणौ', "द्रव्याश्रयी अगुणवान् संयोगविभागेष्वकारणमनपेक्षः" [ वैशेषि० सू० १-१-१६ ] इति गुणलक्षणाभावात् । प्रत्ययात्मकत्वात्तयोगुणत्वमिति चेतु; न; प्रत्ययात्मनोर्लक्षणयोः पृथिव्यादिष्वसम्भवात्, तयोस्तदसाधारणधर्मत्वासम्भवात् । एतेनाभि
पना है अतएव उससे वे दोनों एक हैं-एक द्रव्यलक्षण हैं। अतः उक्त मान्यतामें कोई दोष नहीं है ?
समाधान-ऐसा मानने में भी दोष है, क्योंकि उन दो द्रव्यलक्षणोंमें रहनेवाला वह एक द्रव्यलक्षणत्व क्या है ? वह सामान्य है नहीं, कारण, सामान्य द्रव्य, गुण, और कर्मके आश्रय होता है और ये द्रव्यलक्षण न द्रव्य हैं, क्योंकि द्रव्यलक्षणोंको द्रव्य माननेपर कोई द्रव्यसे भिन्न द्रव्यलक्षण नहीं बन सकेगा और द्रव्यलक्षणके बिना द्रव्यपदार्थ कोई सिद्ध भी नहीं हो सकेगा और इस तरह द्रव्यलक्षणोंको द्रव्य माननेम 'स्वेष्टविघात'- ( अपने मतका नाश ) नामका दोष आता है । गुण भी वे नहीं हो सकते; क्योंकि 'जो द्रव्यके आश्रय हों, स्वयं गुणरहित हों और संयोग तथा विभागोंमें निरपेक्ष कारण न हों' [ वैशेषि० सू० १-१-१६ ] यह गुणलक्षण उनमें नहीं पाया जाता है।
शङ्का-द्रव्यलक्षण प्रत्यय ( ज्ञान ) रूप हैं अतः उन्हें गुण मान लिया जाय ?
समाधान-नहीं, क्योंकि यदि द्रव्यलक्षणोंको प्रत्ययरूप माना जाय तो पृथिवी आदिमें उनका रहना असम्भव हो जायगा। कारण, प्रत्ययरूप दोनों लक्षण उनका असाधारण धर्म नहीं हैं-ज्ञानाधिकरण आत्माके ही वे असाधारण धर्म बन सकते हैं। इस उपयुक्त विवेचनसे द्रव्यलक्षणोंको अभिधान-शब्दरूप मानना भी खण्डित हो जाता है, क्योंकि अभिधानरूप दोनों लक्षण पृथिवी आदिमें अव्याप्त हैं-केवल शब्दाधिकरण आकाशमें ही वे रह सकते हैं और उसीके वे असाधारण धर्म कहलाये जायेंगे।
1. द 'तत्' । 2. 'सामान्यस्य' इति द टिप्पणिपाठः । 3. द 'गुणः'। 4. द 'द्रव्येत्यादि इत्यन्तं पाठो नास्ति ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org