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कारिका ५ ] ईश्वर-परीक्षा
२७. धानात्मनोव्यलक्षणयोगुणत्वं प्रत्याख्यातम् । नापि ते कर्मणी, परिस्पन्दात्मकत्वात, "एकद्रव्यमगणं संयोगविभागेष्वनपेक्षकारणम्" [ वैशेषि० सू० १-१-१७ ] इति कर्मलक्षणस्याभावाच्च । तयोरेकद्रव्यत्वे नवविधत्वप्रसङ्गाद्व्यलक्षणस्य कुतो द्वित्वमेकत्वं वा व्यवतिष्ठते ? यतो द्रव्यलक्षणत्वमेकं तत्र प्रवर्त्तमानमेकत्वं व्यवस्थापयेत् । तथोपचरितोपचारप्रसङ्गश्च, द्रव्यलक्षणत्वेनैकेन योगाद् द्रव्यलक्षणयोरेकत्वादेकं द्रव्यलक्षणम् तेन चोपचरितेन द्रव्यलक्षणेनेकेन योगात्पृथिव्यादोनयेको द्रव्यपदार्थ इति कुतः पारमाथिको द्रव्यपदार्थः कश्चिदेकः सिद्ध्येत् ?
२७. यदप्यभ्यधायि वैशेषिकैः पृथिव्यादीनां नवानां द्रव्यत्वेनैके
अतः द्रव्यलक्षणगुण भी नहीं कहे जा सकते। तथा वे कर्म भी नहीं हैं, क्योंकि वे क्रियारूप नहीं हैं। दूसरे, 'जो एक हो द्रव्यके आश्रय हैं, स्वयं निगुण है और संयोग तथा विभागोंमें अन्य किसी कारगकी अपेक्षा नहीं रखता है वह कर्म है' यह कर्मलक्षण उनमें नहीं है । यदि द्रव्यलक्षणोंको 'एक-द्रव्य' कहा जाय तो द्रव्यलक्षण नौ तरहका हो जायगा फिर दो अथवा एक द्रव्यलक्षण कैसे बन सकेगा? जिससे एक द्रव्यलक्षणत्व उन दो द्रव्यलक्षणोंमें रहकर उनके एकत्वकी व्यवस्था करे। तात्पर्य यह कि कर्म एक-एक द्रव्यके आश्रय जुदा-जुदा ही रहता है और इसलिये उसे 'एकद्रव्य' कहा जाता है । अतएव यदि द्रव्यलक्षणोंको ‘एकद्रव्य' रूप कम माना जाय तो पथिवी आदि द्रव्य नौ हैं और इसलिये उन नौमें प्रत्येक जुदा-जुदा द्रव्यलक्षण रहनेसे द्रव्यलक्षण नौ हो जायेंगे-दो द्रव्यलक्षणों अथवा एक द्रव्यलक्षगकी उपरोक्त मान्यता फिर नहीं बन सकती है । तब एक द्रव्यलक्षगत्वसे उन दो द्रव्यलक्षणों में एकत्व कैसे स्थापित किया जा सकता है ? तथा ऐसा मानने में उपचरितोपचारका प्रसंग भी आता है । एक द्रव्यलक्षणत्वके योगसे तो दो द्रव्यलक्षणोंमें एकता-एकपना लाया गया और इस तरह एक द्रव्यलक्षण हुआ और इस उपचरित एक द्रव्यलक्षणसे पृथिवी आदिको एक द्रव्यपदार्थ माना गया । अतः उपयुक्त मान्यतामें उपचरितोपचारका दूषण भी स्पष्ट है। ऐसी स्थितिमें एक वास्तविक द्रव्यपदार्थ कैसे सिद्ध हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता।
२७. शङ्का-पृथिवो आदि नौमें एक द्रव्यत्वसामान्यका सम्बन्ध है अतः उस द्रव्यत्वसामान्यसे उनमें एकत्व-एकपना है और इसलिये द्रव्य नामका एक पदार्थ सिद्ध हो जाता है ?
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