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कारिका ५]
ईश्वर-परीक्षा नवापि पृथिव्यादीनि' द्रव्याण्येकलक्षणयोगादेको द्रव्यपदार्थ इति चेत्, न; तथोपचारमात्रप्रसंगात्। पुरुषो यष्टिरिति यथा । यष्टिसाहचर्याद्धि पुरुषो यष्टिरिति कथ्यते न पुन: स्वयं यष्टिरित्युपचारः प्रसिद्ध एव तथा पृथिव्यादिरनेकोऽपि स्वयमेकलक्षणयोगादेक उपचर्यते न तु स्वयमेक इत्यायातम् । न च लक्षणमप्येकम्, पृथिव्यादिष पञ्चसु क्रियावत्स्वेव 'क्रियावद्गुणवत्समवायिकारणम्' [ वैशेषि० सू० १-१-१५ ] इति द्रव्यलक्षणस्य भावात, नि:क्रियेष्वाकाशकालदिगात्मसु क्रियावत्त्वस्याभावात् । 'गुणवत्समवायिकारणम्' इत्येतावन्मात्रस्य ततोऽन्यस्य द्रव्यलक्षणस्य सद्भावात् लक्षणद्वयस्य प्रसिद्धः। तथा च द्रव्यलक्षणद्वययोगात् द्वावेव द्रव्यपदार्थों स्याताम।
२६. यदि पुनद्वयोरपि द्रव्यलक्षणयोद्रव्यलक्षणत्वाविशेषादेकं द्रव्यपदार्थ सिद्ध नहीं होता; क्योंकि इस तरह द्रव्यलक्षण ही एक सिद्ध होता है लक्ष्यभूत द्रव्य एक सिद्ध नहीं होता।
शङ्का -पृथिव्यादि नवों द्रव्योंमें एक द्रव्यलक्षण रहता है इसलिये वे एक द्रव्यपदार्थ हैं।
समाधान-नहीं, इस तरह तो केवल उपचारका ही प्रसंग आयेगा । अर्थात् मात्र औपचारिक एक द्रव्यपदार्थ सिद्ध होगा-वास्तविक नहीं। जैसे लकड़ीवाले पुरुषको 'लकड़ी', तांगेवालेको 'तांगा', लकड़ी और तांगेके साहचर्य-संयोगसे उपचारतः कह दिया जाता है। वास्तवमें तो न लकड़ीवाला पुरुष लकड़ी है और न तांगेवाला तांगा है--वे दोनों ही अलगअलग दो चीजें हैं। उसी प्रकार पृथिव्यादि अनेक द्रव्य भी एक लक्षणके साहचर्य-योगसे उपचारतः एक हैं, वस्तुतः स्वयं एक नहीं हैं, यह अगत्या मानना पड़ेगा। दूसरे, लक्षण भी एक नहीं है। पृथिवी आदि जो पाँच क्रियावान् द्रव्य हैं उनमें ही उपयुक्त क्रियावत्ता, गुणवत्ता और समवायिकारणता' रूप द्रव्यलक्षण पाया जाता है और निष्क्रिय जो आकाश, काल, दिशा और आत्मा ये चार द्रव्य हैं उनमें क्रियावत्ता नहीं पायी जाती है और इसलिये इन चार द्रव्यों में केवल 'गुगवत्ता और समवायिकारणता' रूप एक अन्य द्रव्यलक्षण पाया जानेसे दो द्रव्यलक्षण प्रसिद्ध होते हैं। और इस तरह दो द्रव्यलक्षणोंसे दो ही द्रव्यपदार्थ सिद्ध हो सकेंगे।
२६. शङ्का-दोनों ही द्रव्यलक्षणोंमें एक द्रव्यलक्षणत्व-द्रव्यलक्षण
1. द 'पृथिव्यादिद्रव्या' । १. क्रियावदित्यादिद्रव्यलक्षणात् ।
२. न तु नव इति शेषः ।
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