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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ५ क्षणानुपपत्तेः। पृथिव्यादीनि लक्ष्याणि, "क्रियावद्गुणवत्समवायिकारणम्" [ वैशेषि० सू० १-१-१५ ] इति द्रव्यलक्षणं यदि प्रतिज्ञायते, तदाऽनेकत्र लक्ष्ये लक्षणं कथमेकमेव प्रयुज्यते ? तस्य' प्रतिव्यक्तिभेदात् । न हि यदेव पृथिव्यां द्रव्यलक्षणं तदेवोदकादिष्वस्ति, २तस्यासाधारणरूपत्वात् । यदि पुनर्द्रव्यलक्षणं पृथिव्यादीनां गुणादिभ्यो व्यवच्छेदकतया तावदसाधारणो धर्मः, पृथिव्यादिषु नवस्वपि सद्भावात्साधारणः । कथमन्यथाऽतिव्याप्त्यव्याप्ती लक्षणस्य निराक्रियेते ? सकललक्ष्यव्यक्तिषु हि व्यापकस्य लक्षणस्याव्याप्तिपरिहारस्तदलक्ष्येभ्यश्च व्यावृत्तस्यातिव्याप्तिपरिहारः सकलैर्लक्ष्यलक्षण रभिधीयते नान्यथेति मतिः, तदपि नैको द्रव्यपदार्थः सिद्ध्यति, द्रव्यलक्षणादन्यस्य लक्ष्यस्य द्रव्यस्यकस्यासम्भवात् ।
द्रव्यलक्षण द्रव्यपदार्थ है ? पर यह बात नहीं है क्योंकि लक्ष्यभूत द्रव्यके अभावमें द्रव्यलक्षण ही नहीं बनता है। यदि यह कहा जाय कि पृथिव्यादिक लक्ष्य हैं और "क्रियावत्ता, गुणवत्ता तथा समवायिकारणता' द्रव्यलक्षण है, अतः लक्ष्यभूत द्रव्य और द्रव्यलक्षण दोनों उपपन्न हैं तो अनेक लक्ष्यों-पृथिव्यादिकोंमें एक ही द्रव्यलक्षण कैसे प्रयुक्त हो सकता है क्योंकि लक्षण प्रतिव्यक्ति भिन्न होता है। जो पृथिवीमें द्रव्यलक्षण है वही द्रव्यलक्षण जलादिकोंमें नहीं है। कारण, वह असाधारण होता है। यदि यह माना जाय कि पृथिव्यादिका जो द्रव्यलक्षण है वह पृथिव्यादिकको गुणादिकसे जुदा कराता है इसलिये तो वह असाधारण है और पृथिव्यादि नवोंमें सभीमें रहता है इसलिये वह साधारण है । अतः लक्षण असाधारण और साधारण दोनों ही तरहका होता है। अन्यथा लक्षणके अतिव्याप्ति और अव्याप्ति दोषका परिहार कैसे किया जा सकता है । सम्पूर्ण लक्ष्यभूत वस्तुओंमें लक्षणके रहनेसे अव्याप्तिका परिहार और अलक्ष्योंमें न रहने-उनसे लक्ष्यको व्यावृत्त करनेसे अतिव्याप्तिका निराकरण सभी लक्ष्यलक्षणज्ञ विद्वान् बतलाते हैं। लक्षणको असाधारण और साधारण माने बिना अव्याप्ति तथा अतिव्याप्तिका परिहार नहीं किया जा सकता है। अतः पृथिव्यादि नवोंमें एक द्रव्यलक्षण मानने में कोई आपत्ति नहीं है ? लेकिन ऐसा माननेपर भी एक द्रव्य
लक्षणस्य । २. द्रव्यलक्षणस्य ।
1. मु 'वस्तुषु' पाठः ।
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