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________________ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ५ जीवन्नेव हि विद्वान् संहर्षायासाभ्यां विमुच्यते' इत्युपदेशाच्च नानुमानागमाभ्यां बाध्यते । जीवन्मुक्तिवत् परममुक्तेरप्यत एवानुष्ठानात्सम्भावनोपपत्तेः । न चान्यत्प्रमाणं बाधकं तदुपदेशस्य, तद्विपरीतार्थव्यवस्थापकत्वाभावादीति। $ २४. तदपि न विचारहमम्, श्रद्धादिविशेषविषयाणां पदार्थानां यथावस्थितार्थत्वासम्भवात् । द्रव्यादयो हि षटपदार्थास्तावदुपादेया. सदात्मानः प्रागभावादयश्चासदात्मानस्ते च यथा वैशेषिकावर्ण्यन्ते तथा न यथार्थतया व्यवतिष्ठन्ते, तदग्राहकप्रमाणाभावात। द्रव्यं हि गुणादिभ्यो भिन्नमेकम्, गुणश्चेतरेभ्यो भिन्न एकः, कर्म चैकमितरेभ्यो भिन्नम्, सामान्यं चैकम, विशेषश्चैकः पदार्थः, समवायवत् यद्यभ्युपगम्यते तदा द्रव्यादयः षट् पदार्थाः सिद्ध्येयुः । न च द्रव्यपदस्यैकोऽर्थः परैअनुमान करते हैं और यह उपदेश भी है कि 'जीवित अवस्थामें ही विद्वान् राग और द्वेषसे मुक्त हो जाता है। और इसलिये अनुमान तथा आगमसे भी मोक्षमार्गानुष्ठान बाधित नहीं है, प्रत्यत सिद्ध ही है। इसी अनुष्ठानसे जीवन्मुक्तिकी तरह परममुक्ति भी सम्भव सिद्ध है। इसके अतिरिक्त और कोई भी प्रमाण उक्त उपदेशमें बाधक नहीं है। कारण, उससे विपरीतविरुद्ध अर्थकी कोई प्रमाण व्यवस्था-प्रसाधन नहीं करता। तात्पर्य यह कि सभी प्रमाण-प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम वैशेषिकोंद्वारा मान्य आप्तके उपदेशका समर्थन ही करते हैं, विरोध नहीं। अतः कमसे कम वैशेषिकोके आप्त-महेश्वरका तो उक्त विशेषणों द्वारा व्यवच्छेद नहीं हो सकता है ? समाधान-उपर्युक्त कथन विचारपूर्ण नहीं है, क्योंकि श्रद्धाविशेष आदिके विषयभूत जो पदार्थ वैशेषिकोंद्वारा स्वीकार किये गये हैं वे यथावस्थितरूपसे सिद्ध नहीं होते । उन्होंने द्रव्यादि छह पदार्थों को तो उपादेय और सद्रूप ( भावात्मक) तथा प्रागभावादिको असद्रूप (अभावात्मक ) वर्णित किया है । परन्तु वे वैसे ( उसरूपसे) सिद्ध नहीं होते। कारण, उनका साधक प्रमाण नहीं है। हाँ, यदि द्रव्य गुण दिसे भिन्न और एक, गुण इतरपदार्थोंसे भिन्न और एक, कर्म एक और इतर पदार्थोंसे भिन्न, सामान्य एक और विशेष एक तथा भिन्न इस तरह समवायकी तरह उन्हें एक-एक और परस्पर भिन्न पदार्थ माने जावें तो द्रव्यादि छह पदार्थ सिद्ध हो सकते हैं, परन्तु वैशेषिकोने न तो 'द्रव्य' पदका एक अर्थ माना है और 1. द ‘सिद्धेयुः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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