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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका २ सत्यन्तरङ्गे द्रव्यक्रोधादिबन्धे भावबन्धस्य सद्भावः तदभावे चासद्भाव: सिद्ध एवेति मिथ्यादर्शनहेतुको भावबन्धः । तद्वदविरतिहेतुकश्च समुत्पन्नसम्यग्दर्शनस्यापि कस्यचिदप्रकृष्टो' भावबन्धः सत्यामविरतौ प्रतीयत एव । ततोऽप्यप्रकृष्टो भावबन्धः प्रमादहेतुकः स्यादविरत्यभावेऽपि, कस्यचिद्विरतस्य सति प्रमादे तदुपलब्धेः। ततोऽप्यप्रकृष्ट: कषायहेतुकः सम्यग्दृष्टेविरतस्याप्रमत्तस्यापि कषायसद्भावे भावात् । ततोऽप्यप्रकृष्टवपुरज्ञानलक्षणो भावबन्धो योगहेतुकः क्षीणकषायस्यापि योगसद्भावे तत्सद्भावात् । केवलिनस्तु योगसद्भावेऽपि न भावबन्धः, तस्य जीवन्मुक्तत्वान्मोक्षप्रसिद्धेः । न चैवमेकैकहेतुक एव बन्धः, पूर्वस्मिन्पूर्वस्मिन्नुत्तरस्योत्तरस्य बन्धहेतोः सदभावात् । कषायहेतुको हि बन्धो योगहेतुकोऽपि । किया है । सो इस बाह्य कारण (मिथ्यादर्शन) के होनेपर और आभ्यन्तर कारण द्रव्यक्रोधादिबन्धके होनेपर भावबन्ध होता है और उनके न होने पर नहीं होता है, इस तरह मिथ्यादर्शन भावबन्धका कारण सिद्ध है। उसी प्रकार जिसके सम्यग्दर्शन पैदा हो गया है उसके भी अविरति ( विरतिरूप परिणामोंके अभाव ) के होनेपर मिथ्यादर्शनसे होनेवाले भावबन्धकी अपेक्षा कूछ न्यन अविरतिहेतुक भावबन्ध होता हुआ सुप्रतीत होता है। इससे भी कुछ कम भाव-बन्ध प्रमादके निमित्तसे अविरति न रहनेपर भी होता है। कारण, किसी विरत ( छठे गुणस्थानवर्ती मुनि ) के प्रमादके सद्भावमें भावबन्ध देखा जाता है। प्रमादहेतुक भावबन्धसे भी कुछ अल्प भावबन्ध कषायके सद्भावसे होता है क्योंकि जो सम्यग्दृष्टि है, विरत है और प्रमादरहित भी है उसके क्रोधादि कषायके होनेपर वह उपलब्ध होता है । और उससे भी कुछ हीन भावबन्ध, जो कि अज्ञानस्वरूप है, योगके निमित्तसे होता है। कारण, कषायरहित आत्माके भी योग (मन, वचन और काय सम्बन्धी हलन-चलन ) के सद्भावमें योगहतुक भावबन्ध पाया जाता है। किन्त, केवलीके योगके रहनेपर भी भावबन्ध नहीं होता, कारण वे जीवन्मुक्त हैं और इसलिए उनके मोक्ष-बन्धसे सर्वथा मुक्ति हो चुकी है। अतः उनके भावबन्ध नहीं होता । यहाँ यह नहीं समझना चाहिए कि एक-एक कारणजनित ही बन्ध है क्योंकि पूर्वपूर्व कारणके होनेपर आगे-आगेके बन्ध-कारण अवश्य होते हैं । अतएव
१. न्यूनः।
1. व 'वा' इति पाठः । 2. द 'तत्सद्भावात्' ।
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