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________________ कारिका २] परमेष्ठिगुणस्तोत्रप्रयोजन ६६. तदेवं संक्षेपतो बन्धस्य प्रसिद्धौ 'तद्धेतुरपि सिद्धः, तत्वजन्ते नित्यत्वप्रसंगात्, सतो हेतुरहितस्य नित्यत्वव्यवस्थितेः । “सदकारणवन्नित्यम्" [वैशेषि. ४-१-१ । इति परैरभिधानात । तद्धतश्च मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगविकल्पात्पञ्चविधः स्यात् । बन्धो हि संक्षेपतो द्वेधा, भावबन्धो द्रव्यबन्धश्चेति । तत्र भावबन्धः क्रोधाद्यात्मकः, तस्य हेतुमिथ्यादर्शनम, तद्भावे भावादभावे चाभावात् । क्वचिदक्रोधादिविषये हि क्रोधादिविषयत्वश्रद्धानं मिथ्यादर्शनम, तस्य विपरीताभिनिवेशलक्षणस्य सकलास्तिकप्रसिद्धत्वात् । तस्य च सद्भावे बहिरङ्गस्य ___ समाधान-इसका उत्तर यह है कि 'शरोर हीनस्थान ( निम्न कोटिकी अथवा निकृष्ट जगह ) है क्योंकि वह आत्माके दुःखका कारण है। जैसे किसीका बन्दीगृह । अर्थात् जिस प्रकार ( बन्दी ) को कैदखाना दुःखदारक होता है उसी प्रकार शरीर आत्माको क्लेशदायक है । शङ्का-देवोंका शरीर दुःखकारक नहीं होता । अतएव हेतु पूरे पक्षमें न रहनेसे पक्षाव्यापक है अर्थात् पक्षाव्यापक ( भागासिद्ध ) नामके दोषसे युक्त है ? समाधान नहीं; देवोंका शरीर भी मत्यसमय दुःखजनक होता हैशरीरको जब वे छोड़ते हैं तो उन्हें उससे भारी दुःख होता है। अतः हेतु “पक्षाव्यापक' नहीं है, पक्षव्यापक ही है। ६. इस प्रकार संक्षेपमें बन्ध सिद्ध हो जानेपर उसके हेतु भी सिद्ध हो जाते हैं क्योंकि बन्धके कारण न माननेपर उसे नित्य मानना पड़ेगा। कारण, जिसका कोई कारण ( हेत) नहीं होता और मौजद है वह नित्य व्यवस्थित किया गया है। दूसरे दार्शनिक विद्वान् भी 'सत् और कारणरहितको नित्य' बतलाते हैं। जैनदर्शनमें बन्धके कारण पाँच हैं१. मिथ्यादर्शन, २. अविरति, ३. प्रमाद, ४. कषाय और ५. योग । बन्धके संक्षेपमें दो भेद हैं :-एक भावबन्ध और दूसरा द्रव्यबन्ध । उनमें भावबन्धका, जो क्रोधादिरूप है, कारण मिथ्यादर्शन है क्योंकि उसके होनेपर वह होता है और उसके नहीं होनेपर नहीं होता है । जो क्रोधादिका विषय नहीं है उसमें क्रोधादिविषयत्वका श्रद्धान करना मिथ्यादर्शन है। कारण, सभी आस्तिकोंने विपरीत अभिप्रायको मिथ्यादर्शन स्वीकार १. बन्धहेतुः आस्रव इत्यर्थः । 1. द 'तद्भावे भावादभावे चाभावात् । क्वचिदक्रोधादिविषये हि क्रोधा दिविषयत्वश्रद्धानं मिथ्यादर्शनं' इति पाठो नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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