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________________ उनके चेहरे से ऐसा प्रतीत होता था कि उनके शरीर में कोई व्याधि है। अपने कार्य में व्यस्त होने के कारण केशव वैद्य का ध्यान उधर नहीं गया। मित्रों ने वैद्य से कहा--मित्र ! तुम बड़े स्वार्थी मालूम होते हो! जहाँ निस्वार्थ सेवा का अवसर होता है उधर तुम ध्यान ही नहीं देते। केशव ने कहा कि मित्र! आपका कहना यथार्थ है किन्तु मुझे यह बताइए कि मेरे योग्य ऐसी कौन सी सेवा है? मित्रों ने कहा--इस तपस्वी मुनि के शरीर में कोई रोग प्रतीत होता है इसे मिटा कर महान् लाभ लीजिए। केशव बहुत चतुर वैद्य था उसने मुनि के शरीर को देखकर जान लिया कि कुपथ्य आहार से यह रोग हुआ है। उसने कहा मैं इस तपस्वी की चिकित्सा कर सकता हूँ किन्तु मेरे पास लक्षपाक तेल के सिवा अन्य वस्तुएँ नहीं हैं। चिकित्सा में रत्नकंबल और गोशीर्षचन्दन चाहिए इसकी आप लोग व्यवस्था करें। मित्रों ने पूछा- ये दो चीजें कहाँ मिलती है और उसकी कीमत कितनी है? वैद्य ने कहा--इस की कीमत दो लाख स्वर्णमद्रा है और वह अमक व्यापारी के पास मिलती है। यह सुन वे दो लाख स्वर्ण मुद्रा लेकर व्यापारी के पास पहुंचे। दो लाख स्वर्णमद्रा देकर व्यापारी से रत्नकम्बल और गोशीर्ष चन्दन की याचना की। व्यापारी ने पूछा-आप लोग इन चीजों को क्यों खरीद रहे हैं? मित्रों ने कहा-एक मुनि की चिकित्सा करनी है। सेठ ने कहा--आप लोगों को धन्य है जो इस प्रकार महान लाभ का कार्य कर रहे हो। मैं इनका मूल्य नहीं लंगा। आप इन्हें ले जाकर मुनि के शरीर की चिकित्सा करें। सेठ ने रत्नकम्बल दे दी। इन मित्रों के पारमार्थिक कार्य से सेठ बड़ा प्रभावित हआ। उसने दीक्षा ली और केवलज्ञान प्राप्त कर सिद्ध हुआ। मित्रों ने व्यापारी को धन्यवाद दिया और दोनों वस्तुएँ लेकर केशव के पास आये। उसने लक्षपाक तेल से मुनि के शरीर में मालिश की और रत्नकम्बल द्वारा रोग के कीटाणुओं को निकालकर गोशीर्षचन्दन का उनके शरीर पर लेप कर दिया। इस प्रकार दो-तीन बार प्रयोग कर साधु के शरीर को पूर्ण निरोग कर दिया। कुछ समय के बाद छहों मित्रों को संसार से विरक्ति हो गई। छहों ने निरतिचार संयम का पालन किया और अनशन पूर्वक देह का त्याग कर देवलोक में गये। जिनसेनीय महापुराण में केशव वैद्य का भव नहीं बतलाया और न मुनि चिकित्सा का ही वर्णन आता है। इनकी मान्यतानुसार भ० ऋषभ का नौवाँ भव इस प्रकार है-- (श्री धरदेव स्वर्ग से चवकर जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में वत्सकावती देश में सुसीमा नगरी में सुदृष्टि राजा की सुन्दर नन्दा नामक राणी के गर्भ से सुविधि नामका पुत्र हुआ। सुविधि ने पिता के आग्रह से राज्य ग्रहण किया। तथा अभय चक्रवर्ती की पुत्री मनोरमा के साथ पाणिग्रहण किया। वज्रजंघ के भव में जो श्रीमती था वही जीव इन दोनों के केशव नामका पुत्र हुआ। शार्दूल आदि के जीव भी इन्हीं के निकट उत्पन्न हुए। इन सब साथियों तथा चक्रवर्ती ने अनेक राजाओं के साथ विमल वाहन मनिराज के पास जाकर दीक्षा ले ली परन्तु सुविधि राजा पुत्र के स्नेह वश गृह त्याग नहीं कर सका अतः गृह में ही श्रावक के व्रत पालता रहा। और अन्त में दीक्षा ले कर समाधिपूर्व मरा और सोलहवें स्वर्ग में अच्युतेन्द्र बना। आयु के अन्त में केशव भी तपश्चरण के प्रभाव से उसी अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र हुआ। शार्दल आदि के जीव भी यथायोग्य उसी स्वर्ग में देव हुए।) १०वा और ११ वाँ भव छहों व्यक्ति देह त्यागकर अच्युत नामके बारहवें देवलोक में देव बने। ११वां भव-- जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में पुष्कलावती विजय में लवण समुद्र के पास पुण्डरीकिनी नाम की नगरी में राजा वनसेन की धारणी रानी की कोख से छहों मित्रों ने क्रमशः जन्म लिया। उसमें केशव नामक वैद्य का जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001593
Book TitleJugaijinandachariyam
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorRupendrakumar Pagariya, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1987
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size8 MB
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