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________________ जुगाइजिणिदचरियं एक दिन वनजंघ अपनी रानी श्रीमती के साथ शयनागार में शयन कर रहा था। सुगन्धित द्रष्य का धम फैलने से शयनागार का भवन अत्यन्त सुवासित हो रहा था। भाग्यवश द्वारपाल उस दिन भवन के गवाक्ष खोलना भूल गया जिससे श्वास रूक जाने के कारण उन दोनों की आकस्मिक मृत्यु हो गई। पण सातवाँ-आठवाँ भव (पृ० ११६) वज्रजंघ और श्रीमती देह छोड़कर कुरुक्षेत्र में युग्म रूप में उत्पन्न हुए। वहाँ का आयुष्य पूरा कर दोनों सौधर्मदेवलोक में पति पत्नी के रूप में जन्में । (महापुराण के अनसार दोनों ही पात्र दान के प्रभाव से उत्तरकुरु में दम्पत्ति के रूप में उत्पन्न हुए। शार्दुल, नकुल, वानर और शकर भी पात्रदान की अनुमोदना से यही उत्पन्न हुए। मतिवर आदि भी दीक्षा धारण कर यथायोग्य अधो ग्रैवेयक में उत्पन्न हुए। वज्रजंघ और श्रीमती के जीव युगल को सूर्यप्रभदेव के गगनगामी विमान को देखकर जातिस्मरण हो आया। उस समय आकाश से दो चारण मुनि उनके पास आये । उन्होंने मुनियों का परिचय पूछा । मनिराजों ने अपना परिचय देते हए कहा--पूर्वभव में जब आप महाबल थे तब मैं आपका स्वयंबद्ध मंत्री था । आपके संन्यास के बाद मैंने दीक्षा धारण की और सौधर्म देवलोक में जन्म लिया । वहाँ से चवकर वह जम्बद्वीप के पूर्वविदेह क्षेत्र के पुष्कलावती देश की पूण्डरीकिणी नगरी में राजा प्रियसेन के प्रीतिकर नाम का पुत्र हआ । यह प्रीतिदेव मेरा भाई है। स्वयंप्रभ जिनेन्द्र के पास दीक्षा लेकर हम दोनों ने घोर तपश्चरण किया उसके फल स्वरूप अवधिज्ञान तथा चारणऋद्धि प्राप्त की। अवधिज्ञान से आपको यहाँ उत्पन्न हुआ जानकर सम्यक्त्वका लाभ कराने के लिए आया हूँ । काललब्धि आपके अनुकल है अत: आप दोनों ही सम्यक्त्व को ग्रहण कीजिए। यह कहकर सम्यक्त्व का लक्षण तथा प्रभाव बतलाया । मुनिराज के उपदेश से दोनों ने सम्यक्त्व ग्रहण किया। साथ ही शार्दल, नकुल आदि ने भी सम्यक्त्व लिया । आयु के अन्त में वज्रजंघ (युगल) ईशान स्वर्ग के श्रीप्रभविमान में श्रीधर नाम का देव हआ। श्रीमती तथा अन्य साथी भी उसी स्वर्ग में विभिन्न देव हए। एक दिन श्रीधर देव ने अवधिज्ञान से जाना कि प्रीतिकर गुरु को केवलज्ञान हुआ है वह उनकी महिमा के लिए उनके पास पहुँचा और पूछा--कि जब मैं महाबल था तब आप सयंबुद्ध मंत्री थे। कृपा कर यह बताईए कि आपके साथी तीन अन्य मंत्री-शतमति महामति तथा संभिन्नमति इस समय कहा है ? मुनि ने कहा-संभिन्नमति और महामति तो निगोद में गये हैं । तथा शतमति नरक में दुःख उठा रहा है। केवली के मुख से शतमति की यह हालत सुनकर श्रीधर देव को बड़ा दुःख हुआ और नरक में पहुँचकर शतमति को धर्मोपदेश दिया । धर्मोपदेश सुनकर शतमति ने सम्यक्त्व ग्रहण किया जिसके प्रभाव से शतमति नरक से निकलकर पुग्मलावती देश की मंगलावती नगरी में महीधर राजा की सुन्दरी रानी के जयसेन नामक पुत्र के रूप में जन्मा । उसका विवाह होने ही वाला था कि उसी समय श्री धरदेव ने आकर उसे नरक के दु:खों की स्मृति दी जिससे वह पुनः दीक्षित होकर ब्रह्म स्वर्ग का इन्द्र हुआ । ) ९वाँ भव (पृ० ११६) जम्बूद्वीप के महाविदेह क्षेत्र में क्षितिप्रतिष्ठित नाम का नगर था। वहाँ सुविधि नामका एक वैद्य रहता था। देवलोक से चवकर वज्रजंघ का जीव सुविधि वैद्य के यहाँ पुत्र के रूप में जन्मा। उसका नाम केशव रक्खा । केशव वैद्य विद्या में बड़ा निपुण हो गया। सौधर्म देवलोक का आयुष्य पूर्णकर श्रीमती के जीव ने भी इसी क्षितिप्रतिष्ठित नगर के सेट के यहाँ पुत्र रूप से जन्म लिया। उसका नाम अभयघोष रखा गया। वैद्य केशव के पाँच मित्र थे। राजकुमार, एक प्रधान का पुत्र, एक सेठ का पुत्र और दो अन्य श्रेष्ठी पत्र। एक दिन पाँचों मित्र केशव वैद्य के यहां बैठे हुए थे। कृमिकुष्ठ रोग से ग्रसित एक तपस्वी मुनि उधर से निकले। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001593
Book TitleJugaijinandachariyam
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorRupendrakumar Pagariya, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1987
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size8 MB
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