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________________ १८ जुगाईजिणिदचरिय चतुर्दश स्वप्न से सूचित वज्रनाभ नामक पहला पुत्र हुआ। राजपुत्र का जीव बाहु नामका दूसरा पुत्र हुआ। मंत्री पुत्र का जीव पीठ और महापीठ नाम के पुत्र हुए। अभयघोष का जीव सुयश नामका अन्य राजपुत्र हुआ। वहाँ सुयश बाल्यावस्था से ही वज्रनाभ के आश्रय में रहने लगा। छहों अनुक्रम से बढ़ने लगे। महाराज वज्रसेन तीर्थंकर थे। इसलिए लोकान्तिक देवों ने उनसे तीर्थप्रवर्ता ने की प्रार्थना की। अपने भोगावली कर्मों का क्षय हुआ जानकर महाराज वज्रसेन ने अपने पुत्र वज्रनाभ को सिंहासन पर अधिष्ठित कर दीक्षा ले ली। घातीकर्म का क्षय कर केवलज्ञान केवलदर्शन उपार्जन किये और चतुर्विध संघ की स्थापना की। वज्रनाभ ने दिग्विजय करके चक्रवर्ती पद प्राप्त किया। सुयश चक्रवर्ती का सारथि बना। कालक्रम से वज्रनाभ चक्रवर्ती ने अपने चारों भाईयों और सारथि सुयश के साथ अपने पिता भगवान वज्रसेन तीर्थंकर के पास दीक्षा ले ली। उनमें से वजनाभ चौदह पूर्वधर और दूसरे साथी ग्यारह पूर्वधारी हुए। वज्रनाभ मुनि ने अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय स्थविर आदि का गण कीर्तन सेवा भक्ति आदि तीर्थंकर पद के योग्य बीस बोलों की आराधना करके उत्कृष्ट भावों द्वारा तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया। १२वा भव-- आयुष्य पूर्ण होने पर शरीर त्याग कर वज्रनाभ मनि सर्वार्थसिद्ध विमान में पैतीस सागरोपम की स्थिति वाले सर्वोत्कृष्ट देव हुए। जिनसेनीय महापुराण में वज्रजंघ का जीव अच्युत्त नामक सोलहवें स्वर्ग से चवकर जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में पुष्कलावती देश की पुंडरीक नगरी में राजा वज्रसेन की रानी श्रीकान्ता के गर्भ से वज्रनाभि नामक पुत्र हुआ । उसके साथी भी वहाँ पैदा हुए। केशव का जीव उसी नगरी के कुबेरदत्त और अनंतमती नामक वैश्य दम्पत्ति का धनदत्त नामका पुत्र हुआ। वज्रसेन महाराजा वज्रनाभि का राज्याभिषेक कर संसार से विरक्त हो गये और लोकान्तिक देवों से प्रतिबोधित होकर दीक्षित हो गये। वज्रनाभि चक्रवर्ती बने। बज्रनाभि वज्रदंत नामक पुत्र को राज्य सौंप कर अनेक राजाओं ,राजपूत्रों, भाईयों और धनदेव के साथ दीक्षा ग्रहण की। मनिराज वज्रनाभि ने अपने गुरु के निकट दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओं का चिन्तन कर तीर्थकर प्रकृति का बन्ध किया। अन्त में सर्वार्थसिद्ध विमान में अहमेन्द्र बने। --भगवान ऋषभदेव का जन्म काल-- एवं कुलकर (१० ११९) भगवान ऋपभदेव के जन्म से पूर्व अवसर्पिणीकाल के प्रथम आरे में मनुष्यों का आयुष्य तीन पल्योपम का होता था तथा देहमान तीन कोश परिमाण । उस समय के मानव युगलिक के रूप में प्रसिद्ध थे। उनका शरीर वन ऋषभ नाराच संघयण से बना था तथा उनका संस्थान समचतुरस्र था। शरीर सून्दर एवं आकर्षक था। वे रोग शोक चिन्ता वियोग एवं वृद्धत्त्वजन्य कष्ट से मुक्त थे। शाशक या शासित, शोषक या शोषित का सर्वथा अभाव था। उस समय की भूमि भी स्निग्ध कोमल व मधर थी। धान्य बिना बोये उग जाते थे। घोड़े, हाथी, ऊँट, बैल आदि सभी प्रकार के पशु थे पर उनका कोई उपयोग नहीं करता था। मानव सम्पुर्ण शाकाहारी था। बभुक्षा अत्यल्प थी और उसे शान्त करने के लिए अनेक प्रकार के कल्पवृक्ष थे। सब प्रकार के आमोद-प्रमोद के साधनों की उपलब्धि दस प्रकार के कल्प वृक्षों से स्वतः हो जाती थी। इस प्रकार एकान्त सुख सुषमा नामक प्रथम काल चार कोटा कोटि सागर पर्यन्त चला। पश्चात् क्रमशः ह्रासोन्मुख होता हुआ द्वितीय काल पूर्ण हो गया व तृतीय काल भी व्यतीत होने लगा। क्रमशः कल्पवृक्षों से प्राप्त सामग्री क्षीणप्राय होने लगी। और जनसंख्या बढ़ने लगी। उपभोग की सामग्री घटती गई और उपभोक्ता बढ़ने लगे। उपभोग की सामग्री को प्राप्त करने के लिए लोग आपस में संघर्ष करने लगे। वक्षों के बँटवारे के लिए लोग लड़ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001593
Book TitleJugaijinandachariyam
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorRupendrakumar Pagariya, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1987
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size8 MB
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