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________________ इत्यादि । इन अप्रकाशित ग्रन्थों में युगादि जिनदेव चरियं भी एक महत्त्वपूर्ण चरित्र ग्रन्थ है। नवाङ्गी टीकाकार अभयदेव सूरि के पट्टधर आचार्य वर्द्धमान सूरि की प्राकृत भाषा में दो महत्त्वपूर्ण कृतियाँ उपलब्ध हुई हैं। एक 'मनोरमा कहा' जिसका प्रकाशन ला.द. विद्या मन्दिर अहमदाबाद से हुआ है और दूसरा प्रस्तुत युगादि जिनदेवचरित्र । यगादि जिनदेव चरित्र मध्यकालीन चरित्र ग्रन्थों में एक महत्त्वपूर्ण कृति है। इसके कर्ता विद्वान आचार्य वर्द्धमान सूरि है। इन्होंने वि.सं. ११६० में खंभात में इस ग्रन्थ को पूरा किया। यह ग्रन्थ गद्य पद्यमय है। इसका रचना-परिमाण ११००० श्लोक है। यह पाँच अवसरों में विभक्त है। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के जीवन पर जो प्राकृत रचनाएँ उपलब्ध हैं विशालता की अपेक्षा से उनमें यह सर्वप्रथम है। इस ग्रन्थ के प्रथम अवसर में भ० ऋषभदेव के पूर्व भवों का वर्णन है। और शेष में उनके वर्तमान जन्म का। प्रथम अवसर में भ० ऋषभदेव के धन्नासार्थवाह से देवभवों तक का विस्तार पूर्वक वर्णन करते हुए बतलाया गया है कि किस प्रकार उन्होंने तेरह भवों में सम्यक्त्व और संयम के प्रभाव से अपने व्यक्तित्त्व का विकास कर तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर प्रथम तीर्थंकर पद को प्राप्त किया। दूसरे अवसर में उनके जन्म का एवं देवों द्वारा किये गये जन्मोत्सव का वर्णन है। तृतीय अवसर में उनके नामकरण, वंशस्थापन, विवाह महानिष्क्रमण एवं केवलज्ञान का वर्णन है। चतुर्थ अवसर में भगवान की धर्म देशना उनके द्वारा संघ स्थापन आदि का एवं पंचम अवसर में उनके निर्वाण का विशद वर्णन है। इसकी भाषा महाराष्ट्रीय प्राकृत है। बीच-बीच में संस्कृत श्लोक भी उद्धत है। पद्य में अधिक रूप से आर्या छन्द का प्रयोग किया है। कहीं-कहीं अत्यल्प मात्रा में वसन्ततिलका शार्दूल विक्रीडित आदि छन्दों का भी भी उपयोग किया है। चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति, भगवान ऋषभ की स्तुति एवं भरत-बाहुबली के युद्ध का वर्णन अपभ्रंश भाषा में किया है। इसकी भाषा व्यावहारिक और मुहावरेदार है। इस ग्रन्थ में देश्य शब्द एवं लोकोक्तियाँ प्रचुर मात्रा में मिलती हैं। अपभ्रंश की रचना में रड्डा, दूहा आदि का विशेष प्रयोग हुआ है। मख्य चरित्र के वर्णन के साथ-साथ यथास्थान अवान्तर कथाओं से लेखक ने चरित्र को अधिक रोचक बनाया है। इन कथानकों की योजना में भी तर्क पूर्ण बुद्धि का उपयोग किया है। सज्जन और दुर्जन व्यक्ति के चारित्रिक द्वन्द्वों को बड़े सुन्दर रूप में उपस्थित किया है। साथ ही इन कथानकों में मानव जीवन सम्बन्धी गहरे अनुभवों की चमत्कार पूर्ण अभिव्यक्ति हुई है। इनमें आदर्श और जीवन के विविध रूपों का सुन्दर निरूपण हुआ है। दान, शील, तप, भावना, सम्यक्त्व, उसके आराधक विराधक, सम्यक्त्व के पाँच अतिचार, श्रावक के पाँच अनुव्रत, छ लेश्याएँ, कषाय आदि विषयों पर आचार्य श्री ने बड़ी प्रेरक कथाएँ दी हैं। इन कथाओं में रूपक कथाएँ, लोक कथाएँ एवं स्त्री के विविध चरित्रों को अभिव्यक्त करने वाले दृष्टान्त है। लेखक ने भगवान् ऋषभ के जीवन सम्बन्धी जितनी घटनाएँ आवश्यक चूर्णि में मिलती है उन सबको अपनी रचना ली है। भारतीय लोक कथा-साहित्य का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अन्वेषण करने वालों के लिए यह ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी है। इस ग्रन्थ के पाँचों अवसरों में करीब ४५ अवान्तर कथाएँ आती है। सर्वप्रथम दान, शील, तप और भावना पर चार कथाएँ हैं १. दान धर्म पर पूलिन्दः-भील्ल दम्पत्ति की कथा आती है। यह कथा बड़ी रोचक है। इसमें जातिवाद का खण्डन कर मानवतावाद की प्रतिष्ठा की है एवं जातिवाद का दुष्परिणाम और सुपात्रदान का सुपरिणाम बताया है। २. शीलधर्म पर शीलधना का उदाहरण नारी की सहिष्णुता का आदर्श उदाहरण है। पुत्र प्राप्ति के लिए बन्दर की प्रेरणा, उसे पाने के लिए शीलधना की यक्ष साधना, यक्ष का शीलधना के सौंदर्य पर मोहित होना। पति के वियोग में शीलधना का वन में हृदयद्रावक विलाप, शीलधना को पाने के लिए भीलों का आपस में लड़ कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001593
Book TitleJugaijinandachariyam
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorRupendrakumar Pagariya, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1987
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size8 MB
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