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________________ जुगाइजिपिपरिवं संशोधन-- जे० प्रति की अपेक्षा पा० प्रति अधिक शद्ध लगी है। अत: जे० प्रति के अशुद्ध पाठों को पाठान्तर में रख दिये हैं। साथ ही पा० प्रति के विशिष्ठ पाठ जहाँ कहीं अत्यावश्यक लगे उन्हें मूल में तथा कुछ को टिप्पण में रखे हैं। ग्रन्थ सम्पादन में निम्न बातों का ध्यान रखा है--परसवर्ण के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग किया गया है। सामासिक शब्दों को-चिन्ह से अलग किया है। गाथाओं के नम्बर क्रमशः दिये हैं। जो पाठ लिपिकार के दोष से अशुद्ध ही प्रतीत हुए हैं उन अशुद्ध पाठों के स्थान पर शुद्ध पाठ देने का यथासम्भव प्रयत्न किया है। इसके अतिरिक्त व-च, ब-व, त्थ-च्छ, च्छ-त्थ, प-ए, ए-प, दृ-द्द, द्द-ट्ट, ट्ठ-द्ध, द्ध-ट्ठ, उ-ओ, ओ-उ, य-ई, इ-य, इत्यादि अक्षरों के बीच के भेद को न समझने के कारण लिपिक ने एक अक्षर के स्थान में दूसरे अक्षर लिख दिये हैं, उन्हें यथायोग्य स्थान पर रख शुद्ध बनाने का प्रयत्न किया है। धम्म, कम्म, तम्मि आदि की जगह धंम, कम, तंमि लिखा हुआ मिलता है। य श्रुति एवं न ण के विषय में प्रति में एक व्याक्यता नहीं मिलती। कहीं-कहीं य के स्थान पर इ और इ के स्थान पर य भी मिलता है। जैसे राइणा के स्थान पर रायणा, कइवय के स्थान पर कयवय। इसी प्रकार एक ही अक्षर या शब्द दुबारा भी लिपिकार ने लिख दिया है तो कहीं-कहीं सरीखे अक्षर दो बार आते हैं तो लिपिकार उन्हें लिखना ही भूल गया है। पडिमात्रा के समझने में भी लिपिकार ने भूल की है जैसे विसमो की जगह विसामा, अधिवंतेण की जगह अछिवांतण आदि . . .. · इन सब बातों को लक्ष्य में रखकर इस ग्रन्थ को यथा सम्भव शुद्ध बनाने का प्रयत्न किया है। युगादि जिनदेव के चरित्र से सम्बन्धित अधिकांश चरित्र का भाग एवं भरतचक्रवर्ती के चरित्र का पूरा भाग आवश्यक चणि से 'मल शुद्ध प्रकरण' देवचन्द्राचार्य वृत्ति में सम्प्रति राजा की कथा, तथा चाणक्य एवं चन्द्रगुप्त की कथा, ग्रन्थकर्ता ने अपनी कृति में अक्षरश: ली है। अत: इस ग्रन्थ की शुद्धि में तथा श्रुटित पाठों की पूर्ति में इन ग्रन्थों की बड़ी सहायता मिली है। युगादि जिनदेव चरित्र में आने वाली कुछ उपदेशात्मक गाथाएँ अन्य प्राचीन ग्रन्थों में भी पाई गयी है इन गाथाओं के कुछ अशुद्ध अंश थे उन्हें उन उन ग्रन्थों की सहायता से तथा एवं वर्द्धमान सूरिकृत मनोरमा कथा के कुछ गद्यांश भी इस ग्रन्थ में मिलते हैं। इन सब की सहायता से ग्रन्थ को शद्ध बनाने का प्रयत्न किया है। ग्रन्थ परिचय विक्रम की बारहवीं तेरहवीं सदी में जैनाचार्यों ने प्राकृत भाषा में अनेक तीर्थकर चरित्रों का निर्माण कर प्राकृत साहित्य की अभिवृद्धि की है। इनमें कुछ ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं और कुछ ग्रन्थ आज भी अप्रकाशित स्थिति में ग्रन्थ भण्डारों की शोभा बढ़ा रहे हैं। कुछ अप्रकाशित तीर्थंकर चरित्र ये हैं१. सोमप्रभाचार्यकृत --सुमईनाह चरियं (र.वि . ११९९) २. देवसूरिकृत--पउमपभचरियं (१२५४ वि०) ३. लक्ष्मणगणिकृत--सुपासनाह चरियं (११९९ वि.) ४. वीरसूरिकृत--चंदप्पहचरियं (११३८ वि.) ६. नेमिचन्द्रसूरिकृत-अनन्तनाहचरियं (१२१६ वि.) ७. देवचन्द्राचार्यकृत--संतिनाहचरियं (११६० वि.) ८. श्री चन्द्रसूरिकृत-मुनिसुव्वय-सामिचरियं (११९३ वि.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001593
Book TitleJugaijinandachariyam
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorRupendrakumar Pagariya, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1987
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size8 MB
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