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________________ जैनदर्शन का उद्भव और विकास सूत्रकृतांग द्वितीय श्रुतस्कंध में भी अवधि और मनःपर्याय की कोई चर्चा नहीं है किन्तु आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कंध में भ. महावीर के जन्म के समय में तीन ज्ञान का उल्लेख है जो सुने। करता है कि पांव ज्ञान की कल्पना स्थिर हो गई थी। क्योंकि वहीं स्पष्ट किया गया है कि दोक्षा लेते की उन्हें मनःपर्याय ज्ञान का भी लाभ हुआ (आ.. सूत्रकृवांग के द्वितीय श्रुतस्कंधका प्रथम अध्ययन प्रथम श्रुतस्कंध में जिन २ मतों का खंडन किया गया है उनमें से कुछ का विशेष विवरण प्रस्तुत करता है। उस प्रसंग में जैनदर्शन को मान्यताएँ किस प्रकार स्पष्ट रूपमें बनती गई उनकी कुछ झलक हमें मिलती हैं।' अनेक दृष्टांत देकर यह सिद्ध करने की कोशिश की गई है कि शरीर से भिन्न जीव को सिद्धि हो नहीं सकती । शरीर को जला देने के बाद आत्मा या जीव हा कहीं पता नहीं लगता अतरव परलोक और सुकत -दुफत की बात करना मिथ्या है-यह मिथ्या मन 'तज्जीवाच्छशारवाद' का प्रथम उल्लखित है ६५० - ६५३) । अर्थात् ही जैनों की जो शरीर से भिन्न है-यह मान्यता स्थिर हुई । दूसरा मत पंचभूतवादीओं का है (६५५-६५८)। इस मत में पृथ्वी, आप, तेज, वायु और आकाश ये पांच महाभूत हैं और वे अनिर्मित, अनिर्मापित, अकृत, अकृत्रिम, अकृतक, अनादि, अनिधन, अवध्य, अपुरोहित, सतत और शाश्वत हैं। इन पांचों के अलावा आत्मा भी छठा तत्त्व है । उनका कहना है कि सत् का विनाश नहीं होता और असत् की उत्पत्ति नहीं होती। अतएव इतने में ही जीवकाय, अस्ति काय या सर्वलोक आ जाता है । कोई किसी को मारे तब भी कोइ दोष होता नहीं । क्योंकि उक्त तत्त्व तो शाश्वत हैं । इस मत को भी मिथ्या कहा अतएव फलित यह हुआ कि जैनमतानुसार ये तत्त्व ऐसे नहीं जिसमें कोई परिवर्तन न हो। पृथ्वी आदि सभी में परिवर्तन की गुंजाईश है और इसी कारण से हिंसा आदि दोषों की संभावना भी है । इन्हीं तत्वों में लोक को सीमित करना भी जैन मतको मान्य नही-यह भी इससे फलित होता है । इस पंचभूतवादिओं ने अपने तत्त्वों को अस्तिकाय (स०६५७) कहा है-संभव है यहीं से जैनों ने अपने तत्व के लिए अस्तिकाय शब्द अपनाया हो । क्योंकि इस मतवालो ने इन्हीं को लोक भी कहा है और आगे चलकर जैनों ने भी लोक की व्यवस्था पंचास्तिकाय से ही की है । (भगवई १३.४.२३) अथवा यह भी संभव है कि जैनों की अपनी मान्यता को समक्ष रख कर भी यह तुलना को गई हो। इस दृष्टि से अस्तिकाय शब्द का प्रयोग प्रथम जैनों द्वारा हुआ यह मानना पडेगा। इस मतके जो अन्यत्र वर्णन आते हैं उसमें अस्तिकाय शब्द का प्रयोग दिखाई नहीं देता अतएव अधिक संभव है कि यहाँ अपने मतको समक्ष में रखकर ही दूसरे मत का विवरण दिया है। __ तीसरे मत में केवल ईश्वरकारणिक की चर्चा है (६५९)। प्रथम श्रुतस्कंध में जो ईश्वर के अलावा अन्य कारणों की चर्चा की गई है उस का निर्देश नहीं है यह सिद्ध करता है कि अनेक कारणों में से केवल ईश्वरकारणवाद ही विशेष प्रतिष्ठित हुआ तब की यह रचना हो । इस मत को भी मिथ्या बताया है-तात्पर्य यही है कि जगत्सृष्टि का कारण ईश्वर १. इसके लिए उदाहरण के तौर पर आवारांग प्रथम श्रुतगत षड्जीवनिकाय का वर्णन और सुत्रकृतांग गत उसके वर्णन की तुलना की जाय तो उत्तरोत्तर विकास कैसा होता गया यह ज्ञान हो जायगा-सूत्रकृतांग द्वितीयश्रुतस्कन्ध का अध्ययन-३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001589
Book TitleJain Darshan ka Adikal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, Agam, & Canon
File Size4 MB
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