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________________ सूत्रकृतांग द्वितीय श्रुतस्कंध णं नेवस्थि जीवा नेवत्थि पोग्गला"-१६.८.१५ । स्पष्ट है कि जीव और अजीव की गतिका कारण पुद्गलको माना गया है । यदि भगवर्त के इस स्तरकी रचनाके समयमें धर्मास्तिकायद्रव्यकी कल्पना स्थिर हो गई होती तो ऐसा उत्तर मिलता नहीं। धर्मास्तिकायादि की प्ररूपणा क्या भगवान् महावीर ने की है ? ऐसे प्रश्न भी अन्य तीर्थिकों को हुए हैं यह भी सूचित करता है कि यह कोई नई बात दार्शनिक क्षेत्रमें चल पडी थी--भगवती-७.१०.३-६ । भगवती में ही धर्मास्तितकाय आदिके जो पर्याय दिये गये हैं वह भी उन्हें द्रव्य मानने के पक्ष में नहीं है-भगवती २०.२.४-५ "धम्मस्थिकायस्स णं भंते केवइया अभिवयणा पन्नत्ता ? गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पण्णत्ता, तं जहा धम्मे ति वा धम्मस्थिकाए ति वा, पाणाइवायवेरमणे ति वा, मुसावायवेरमणे ति वा एवं जाव परिग्गहवेरमणे ति वा, कोहविवेगे ति वा, जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे ति वा, रियासमिती ति वा, भासास० एसणास० आयाणभंडमत्तनिक्खेवणस० उच्चारपासवणखेलसिघाणपारिट्ठावणियासमिती ति वा, मणगुत्ती ति वा वइगुत्ती ति वा कायगुत्ती ति वा जे यावन्ने तहप्पगारा सव्वे ते धमस्थिकायस्स अभिवयणा"-इत्यादि- इसी तरह अधर्मास्तिकाय के भी पर्याय शब्द दिये हैं। इससे स्पष्ट है कि गतिसहायादि द्रव्यरूपसे जो आगे चलकर धर्म और अधर्म अस्तिकाय की कल्पना की गई है उसका यह पूर्वरूप है, जिसका संबंध अठारह पापस्थानों से विरति और अविरति और समिति गुप्तिके पालन-अपालन रूप श्रमणादि के आचारअनाचाररूप धर्म-अधर्म से है । द्रव्य धर्म-अधर्म से नहीं । उक्त अति विस्तृत सूचि का संकोच देखना हो तो सूत्रकृतांग के ही द्वितीय श्रुतस्कंध के दूसरे अध्ययन के ७१५ वें सूत्र में है-जहाँ-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर,' वेदना, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बन्ध और मोक्ष का निर्देश है । इसी सूची का संकोच हम सात पदार्थ में और नव तत्त्व में देखते हैं। इसमें से वेदना, क्रिया और अधिकरण को निकाल देने से ही ये अंतिम सूचियाँ बनी है- इसमें संदेह नहीं है। स्पष्ट है कि सूत्रकृतांग के काल तक पंचास्तिकाय और षद्रव्य की चर्चा ने तत्त्वविचारणा में स्थान पाया नहीं है। प्रमाण या ज्ञान की चचों में भी प्रगति सुत्रकृतांग में देखी जा सकती है । यद्यपि प्रथम श्रु० में 'सवण्णु'-सर्वज्ञ शब्द का प्रयोग नहीं दिखता फिर भो 'न नायपुत्ता परमत्थि नाणी' (३७५) अणंतचक्खू (३५७), सव्वदंशी अभिभूयनाणी (३५६) अर्थतनाणदंसी (४६०), 'अणुत्तरनाणी, अणुत्तरदंसी, अणुत्तरनाणदंसणधरे' (१६४), अणतनाणी अणतदसी (३५४), तिलोगदंसी (५९५), जगसल्वदंसिणा (१४१) ये सर्वज्ञता की सूचना तो देते ही है। स्पष्टरूप से निर्देश के लिए तो आचारांग के द्वितीय और सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कंध ही हमारे लिए प्रमाण उपस्थित करते हैं-'सवण्णू सव्वभावदरिसी' (आ०७७३) 'केवली बूया' (आ०३३८,३४०,३४२ आदि), 'केवल' (सू०८३५-८३६), 'केवलेण पुष्णेण नाणेण (सू०८३६), 'केवलवरनाणदंसणं' (आ.७७२,७३३; सू०७१४)। आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कंध में 'तित्थ' (७५२) 'तित्थयराभिसेय' (७३९) जैसे प्रयोग सूचित करते हैं कि उस काल में अर्हतों को 'तीर्थकर' शब्दसे सम्बोधित किया जाने लगा था । उसी शब्द का प्रयोग फिर तो सामान्य हो गया-भगवती सू०४(२)। १. सूत्रकृतांग में आकर पांच आस्रव और उसके संवर की व्यवस्था हो गई है- “साहूपंच संवरसंवुडे" ८८। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001589
Book TitleJain Darshan ka Adikal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, Agam, & Canon
File Size4 MB
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