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________________ आचारांग प्रथम श्रुतस्कंधमें दर्शनका रूप २१ 'प्रज्ञा' की अपेक्षा संकुचित अर्थ में प्रयुक्त है। या यों कहें कि सामान्य ज्ञान अर्थ में प्रयुक्त है। बौद्धपरिभाषा में लौकिक और लोकोत्तर प्रज्ञा की चर्चा है। उसे देखते हुए यहाँ लौकिक प्रज्ञाके अर्थ में 'सोतपण्णाणा' को समझना चाहिए। और लोकोत्तर प्रज्ञा के अर्थ में भी प्रज्ञान शब्द प्रयुक्त हुआ ही है-किन्तु विशेषण के साथ-"सव्वसमागतपण्णाण' (आचा०६२, १६०, २१५) और बिना विशेषण के भी प्रयुक्त है (आचा० १६६, १७७)। कौषीतकिब्राह्मणोपनिषद में जो यह कहा 'प्रज्ञया श्रोत्रं समारुह्य' (३.६) इत्यादि, उसकी तुलना आचारांग के 'सोतपण्णाण' से करने जैसी है । उपनिषदों में तो 'प्रज्ञान' को ब्रह्म कहा है- देखें, उपनिषद्वाक्यमहाकोष । ____ अभी 'तीर्थकर' शब्द का प्रयोग प्रचलित नहीं हुआ है और नहीं उनके विशेष ज्ञानको 'केवलज्ञान कहा गया है। उनके 'सर्वज्ञ' और 'सर्वदर्शी' विशेषण जो बाद के आगमों में निश्चित हो गये हैं उनका प्रयोग भी यहाँ नहीं है। भ. महावीर के विशेषणों की विस्तृत चर्चा मैंने अन्यत्र की है। अतएव यहाँ विस्तार करना अनावश्यक है। किन्तु केवलज्ञान की भूमिका खड़ी करनेवाले कुछ विशेषण जो प्रयुक्त हुए हैं उनका निर्देश करके संतोष लेता हूँ -'बुद्ध', 'आययचक्खू', 'लोगविपस्सी', 'परमचक्खू', 'नाणवं', 'वेयवं', 'पन्नाणेहिं परिजाणइ लोगं', 'सव्वसमन्नागयपन्नाण, ‘अनेलिसन्नाणी' 'तहागय' 'माहण' और 'वेयवी' । यहाँ ध्यान देने योग्य शब्द 'वेदविद्' है जो सिद्ध करता है कि उस काल में बेद की प्रतिष्ठा होने से उसके ज्ञान की भी प्रतिष्ठा मानी जाती थी । यहाँ 'बुद्ध' शब्द भी है जो आगे चल कर भ. गौतम बुद्ध के लिये प्रयुक्त है। यथार्थ जाननेवाले को तथागत माना जाता था जो भ. बुद्ध का विशेषण हो गया है । 'माहण'-ब्राह्मण भी प्रतिष्ठासूचक है। 'दर्शन' शब्द का प्रयोग कई बार हुआ है। उसका भी सम्बन्ध 'दृष्ट' के साथ जोड़ना या स्वतन्त्र रखना यह समस्या है क्यो कि 'पासगस्स दसण'(१२८) कोहदंसी' (१३०) इत्यादि प्रयोग भी मिलते हैं। जिनके विषय में हम यह नहीं कह सकते कि ये ज्ञान इन्द्रियाधीन थे । अतएव मति आदि ज्ञान से पृथक् दर्शन का स्वीकार आगे चलकर हुआ । पदार्थों की जो गिनती सात या नव आगे चलकर देखी जाती है उनमें से जीव-अजीव की कल्पना तो स्पष्टरूप से आचारांग में है । पुण्य और पाप का निर्देश मिलता है । कर्मास्रव का भी निर्देश है। निर्नरा और मोक्ष का भी प्रयोग मिलता है। किन्तु संवर शब्द का प्रयोग नहीं मिलता । कहीं भी इन तत्त्वों की एक साथ गीनती भी नहीं मिलती स्पष्ट है कि सात यो नव तत्त्वों के गिनने का प्रघात अभी शुरू नहीं हुआ था। जैनदर्शन में पदार्थ, अस्तिकाय, द्रव्य-ये शब्द जैनसंमत तत्त्वों के लिए प्रचलित हुए हैं । आच रांग में इनमें से 'दावय' (द्रव्य) का प्रयोग मिलता है किन्तु पारिभाषिक अर्थ में नहींआ. च. पृ० १५० । 'अर्थ' शब्द का प्रयोग कई बार हुआ है किन्तु 'पदार्थ' के समीप अर्थ में प्रयुक्त 'अर्थ' शब्द एक बार ही प्राप्त होता है- आचा० १२४ । १. देखें पालिडिक्शनरी में पञ्ज और पा। २. 'आकेवलिए हिं' शब्द का प्रयोग एक बार मिलता है । आचा० १८३ । ३. 'संप्रमाद' पृ० १३६ -१४८ श्री चतुर्भुज पुजारा मंत्रविद्योत्कर्ष ट्रस्ट, अहमदाबाद. १९७७, और अखिल भारतीय प्राच्य विद्या परिषद् की कार्यवाही १९७२. प्र०२४७ इसी विषयका मेरा लेख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001589
Book TitleJain Darshan ka Adikal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, Agam, & Canon
File Size4 MB
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