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________________ २२ जैनदर्शन का उद्भव और विकास आगे चलकर द्रव्य-गुण-पर्याय ये पारिभाषिक शब्द जनदर्शन में प्रचलित हुए। इनमें से 'गुण' शब्दका प्रयोग आचारांग में (३३, ४१, ६३, १६३) मिलता है। एक स्थान में 'गुण' का सम्बन्ध चूर्णिके अनुसार 'रंधण-पयण-पगासण' आदि से है (पृ०३०), तो दूसरे स्थान में 'गुण' शब्द का सम्बन्ध 'सद्दादि विसय' (पृ०३२) से है । यह दूसरा अर्थ 'गुण' की परिभाषा के साथ मेल खाता है। और यही अर्थ अन्यत्र 'सद्दादिसु गुणेसु' (पृ०४९) कह कर स्वीकृत हुआ है। अन्यत्र 'गुणा नाणादि' (पृ०१८४) अर्थ किया है। अतएव हम कह सकते हैं कि चेतन द्रव्य के ज्ञानादि गुण और अचेतन द्रव्य के शब्दादि गुण आचारांग में अभिप्रेत है। इतना होने पर भी समग्ररूर से गुण पदार्थ की स्वतंत्र चर्चा नहीं हई यह कहा जा सकता है। यह प्रक्रिया अगले स्तर में शुरू हुई है। वजवजात' (आचा० १०९) में स्पष्टरूप से पर्याय का उल्लेख है और यहाँ वही पर्याय से अभेप्रेत है जो परिणाम से सूचित होता है (आचा. चू० पृ०१०९)। समग्र आचारांग में यह शब्द केवल एक बार प्रयुक्त हुआ है-उससे सूचित होता है कि अभी स्पष्टरूप से वह पारिभाषिक नहीं बना है । आचारांग का यह सूत्र विशेष ध्यान देने योग्य है- "इहमेगेसिं आयारगोयरे णो सुणिसंते भवति । ते इह आरंभट्ठ! अगुवयमाणा हण पाणे घातमाणा, हणतो यावि समणुजाणमाणा, अदुवा अदिन्नमाइयंति, अदुवा वायाओ विउंति', तं जहा अस्थि लोए, णस्थि लोए, धुवे लोए, अधुवे लोए, सादिए लाए, अणादिए लोए, सपज्जवसिए लोए, अपज्जवसिए लोए, सुकडे ति वा दुकड़े ति वा कल्लाणे ति वा पावए ति वा साधू ति वा, असाधू ति वा सिद्धी ति वा असिद्धी ति वा निरए ति वा अनिरए ति वा । जमिणं विप्पडिवण्णा मामगं धम्मं पण्णवेमाणा ।" आचा०२००७। इस सूत्र में अनेकान्त के बीज देखे जा सकते हैं । यहाँ पर इन विविध मतों को परस्पर विरोधी बताये गये हैं। किन्तु जैन मन्तव्य स्पष्ट नहीं किया गया। लेकिन भगवतीस्त्र में इन विषयों का अनेकान्त दृष्टि से निरूपण किया है, कि लोक ध्रुव भी है और अध्रुव भी, सादि भी है और अनादि भी, सान्त भी है और अनन्त भी। इस सूची में लोक, सुकृत-दुष्कृत, कल्याण-पाप, साधु-असाधु, सिद्धि-असिद्धि और नरकअनरक का निर्देश है किन्तु इस सूचि का विस्तार हमें सूत्रकृतांग २.५ में मिलता है। आचारांग में आत्मा के विषय में परिणामवाद स्वीकृत है इसकी प्रतोति तो १-३ सूत्रों से होती ही है। जहाँ परिणत जीव के अनेक जन्मों की बात कही गई है और इसकी पुष्टि द्वितीय श्रुतस्कंध से होती है। जहां परिणत और अपरिणत पानक की चर्चा है-आचा०३६९ । और भी देखें-असत्थपरिणत आचा० ३७५-३७९, ३८२, ३८४-३८८ । आचारांग की नियुक्ति में स्पष्ट कहा गया है कि१. यहाँ हिंसा, चोरी और मृषाबाद-यह क्रम ध्यान देने योग्य है । बौद्धों में भी यही क्रम है। २. तुलना सुत्रकृ० ८०, ८१, । सूत्रकृ० चूर्णि-पृ०४६, प्राकृत परिषद् । ३. इसकी चूर्णि पृ०२५१ ।। ४. विशेष विवरण के लिए देखें-'आगम युगका जैनदर्शन' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001589
Book TitleJain Darshan ka Adikal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, Agam, & Canon
File Size4 MB
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