SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 290
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ काव्यकल्पलतावृत्तिः परिशिष्ट इतः परं द्विपद्योऽधिक्रियन्ते।। कत्यापि ध्रधाः; द्वौ द्विमात्रौ, चतुर्मात्री, द्वौ द्विमात्रौ, लघुस्ततः । द्वौ द्विमात्रौ चतुर्मात्री द्वौ द्विमात्री लघुत्रयम् ।। कपरपञ्चदशभिर्मात्राभिरतिभिर्यदि । च स्थाने दद्वयोक्तिस्तु जगणस्य निषेधकृत् ।। यथा-- कप्पूरधवलगुण अज्जिणिय आजम्म विनवि चक्कवइ । पई कित्तिकाई उल्लालि करि घल्लिय चउ सायरपरइ ।।छ।। कर्पूर एवान्ते लघुहीनो भवतिः कुंकुमः । यथा-- घणसारुमिम्हि कुंकुमवाहि परइ करइ मयनाह वि। विण पियइ मिक हसउ निष्फल मण रइकरइ न कत्थवि ।। एतावल्लासको मागधानां, वस्तुवदनकगन्धानां प्रसिद्धाः । यदाह-- जइ वत्थ आणहे द्वे उल्लाला छंदयाम्मि किज्जति । दिवढ बंदयछप्पयकथाइं ताई बुच्चंति । यथा-- वस्तुवदनकस्य कर्पूरेण । यथा-- निष्कंदलकरकच्छन लियणिवज्जि अयकयसरसिरि । निच्चंदण किउ मलउ तुहिणवज्जिउ किउ हिमगिरि । निप्पल्लवकिय करिपय न किकेल्लि विडवसय । पत्तचत्तकयवाल कयलिअ कुसुमकयतरुलय । शिशिरोवयारकिहिपरि अणि वि मुत्ताहलकय भुवण । ता वि हु तती प हॉ विरह भरि ख सई दाह दारुण विअण । कुंकुमेन यथा-- गयणप्परि किं न चडहि किं न चडहि कि नवि वरि करिहि दिसि हि वस्तु । भवणत्तयसंता हरहि कि न किरि वसुहारसु ।। अंधयारु किं न दलिहि पयडउ जोउ गहिल्लउ । कि न धरिज्जइ देवि सिरहिसइ हरिसोहिल्लउ ।। कि न तणउ होहि रयणायरह होहि किं न सिरि सायरु । तुवि चंदनि अविमुह गोरिय हि कुवि न करइ तुह आयरु ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001586
Book TitleKavyakalpalatavrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj, R S Betai, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy