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________________ काव्यकल्पलतावृत्ति एतेषां वर्णानामग्रे रहितशब्द: प्रयोज्यः । करहित-कीरहितेत्यादि । एतैः शब्दवर्णा आकृप्यन्ते । करहितकमलशाली, पक्षे मलशाली । कीरहितबन्धु कीयुतः, पक्षे बन्धुयुतः, इत्यादि ज्ञेयम् । स्म रज्वरस्वरस्मरद्वारस्थावरतुषारमुख्य नाम् । पारावारादीनां रान्तानामग्रतो हितो योज्य: ।।४७।। यथा-स्मेरेहित, ज्वरहित इत्यादि । स्मरहितस्मरणशाली, पक्षे रणशाली । इत्याग्रह यम् । एवमन्येऽपि शब्दाः । यथा-अहीनं, अलङ्कृ तं, नूनम । लकारान्तलाकारान्तशब्दानामने नोदशब्द: प्रयोज्यः, तथा उपपदे कृतरचितादिशब्दाः प्रयोज्याः । यथा-कृततापनोदः, रचितचापनोदः । अथ श्वेषसाधकाः ककारान्ताद्याः ककारादिप्रमुखाश्च शब्दा लिख्यन्ते । यथा-- नाक' निष्क पिक काक शक बक पङक भेक घक स्तोक अलिक पुलक अंशक गर्भक ताटङक हंसक कृषिक कर्षक कौतुक श्यामाक नरक कलङक नन्दक तारक करक गुह्यक विपाक अलीक कटक स्थानक स्तबक बन्धक गण्डक जाहक चन्द्रक तर्णक व्यालीक विटङक जालक स्वस्तिक मणिक पथिक हतक लग्नक नाविक गणक कविक समीक अनीक फलक बन्धक पथक दारक जनक अम्बक तिलक अलक नालिक रजक मालिक लुब्धक स्फोटक आर्द्रक माक्षिक पातक तलक उदक अधिक मस्तक वनीक अङगारक अपवरक उच्छीर्षक प्राधणक वनीपक दौवारिक आरालिक प्रबोधक विशेषक भयानक रणरणक वैकटिक । एषामग्रे--आकर कर कल करि कपि कवि कम्र कशा कन्या कर्ण कच कफ कपालि कदर्य कपर्द कलङक कदली करज कमठ कमल कदम्ब कपट करवीर कवचन कमण्डलु करवाल कर्णधार कम्ब कङ कण्ड कन्द कङकाल कन्धरा कङकट कम्बल कन्दर कन्दर्प कङकण केवलि कोल कोयष्ठि कोप कौपीन केलि केतु केशव कोदण्ड केश केदार कोद्रव कैरव केसर । चक्र तक वक्र शक शक नक शक्ल । अग्रे--क्रोड ऋतु ऋव्य क्लेश क्लम क्रोधन क्रमेलक ऋकच । राका शडका लडका कालिका बलाका बालिका ऊर्मिका नासिका तारका कृत्तिका उत्कालिका । अग्रे--कासि काय काकु काञ्ची काक काम कान्ता काण्ड कामि काच कारु कारा काकोल कापेय कासर कानन कान्तार काञ्चन काश्यपी कारण कातर कासार । नाकि पिनाकि वातकि वर्द्धकि श्रीवृक्षकि प्रचलाकि । अग्रे--किल किरण किंशुक किसलय किङकर । शुकी पिको बन्धकी वल्लकी आमलकी । अग्रे-कील कीर कीनाश कीलाल । काकु रङकु न्यङक शङकु । एषामग्रे--कुल कुच कुश कुट कुक्षि कुम्भि कुण्ड कुन्त कुण्डल कुन्तल कुशीलव कुरबक कुलवधू कुलाल कुहर कुवेणी कुरङ्ग कुलीना ।। मख मख पूडख नख सुख दुःख शङख । अग्रे--खर खनि खग खश खर्जु खल खलीन खद्योत खचित खण्ड खञ्जन खञ्ज । शिखा शाखा रेखा लेखा परिखा विशाखा । अग्रे--खानि खात । सखि सखी--अग्रे अखिल खिल । आख--अग्रे खुर ।। १. विभिन्नेषु पुस्तकेषु शब्दक्रम: अत्रतत्र असमानः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001586
Book TitleKavyakalpalatavrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj, R S Betai, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size25 MB
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