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भूपनइं तुं जई कहिये, स्यउ दर्शनीनउ दोस, संभालि मंदिर ताहरु, तुं म करिसि अवरस्यउं रोस. १२ जे वहु आंणी वन थकी, ते मारिरूप विकराल, अवतरी नगरनु नाश करवा, दीसती अति सुकमाल. अदृष्ट थई अहवउं कही, मुझ सुपनमांहि देवि; दर्शनी सहु नई फोक कांई, दमइ नृप तुं हेवि. प्रतीति जउ नहीं स्वामिनइं, तउ जोईइ स्वयमेव; आदर्शस्यउं कर कंकणई, ओ वात कही संखेवि. नरनाथ विस्मय चितइ पाय उ, इम सुणी सुलसावांणि; कांई विमासी मोकली, योगिनी देई मांन.
ढाल १६
राग केदारु (सरस्वति गुणपति प्रणमउं-अ देशी) राइं योगिणि बउ लावी, मनमांहइं संका आवी; ओ कस्युं खंपण मुझ कुलि निरमलइ अ. सुत राखउ तिणि निशि राजइं, वहुनूं चरित्र जोवा काजइं; अक जन छांनउ तसु धरि मोकल्यउ अ. ओक जन छांनउ तसु धरि मोकल्य उ, राई जोवा चरित, ओ योगिणि साची कइ जूठी, अहवी करवा निरति. तिणि निसि कुमरनई निद्रा नावी, चितइ विसवा वीसइ; प्रांण प्रीआनइ दोहिली वेला, अतां आवी दीसइ. दिहाडी दिहाडी हुं छावरतु, दीठ इ परतीख वांक इं; हा हा मुगधानई स्यु थास्य इ, लोक गूझ नहीं ढांकइं, जउ अदृष्टीकरणनी विद्या, मुझ हुइ पंख समेत; तु हिवडां जई ते सशिमुखि नइं, जणावउं संकेत
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