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ढाल १५
राग सांभरी
(नेमनाथना मसवाडानी त्रीजी - ओ देशी ) आवी सभाई योगिनो पापिणी अद्भुत वेस; ताड त्रीजउ भाग उंची सिरि जटा जूटा केश. आंखि राती चिपुट नाश, ललाट अंगुल च्यार; काश्मीरमुद्रा श्रवणि लहकइ खलकंति मेखल भार कंठि माला शंख केरी, भस्म धुसर वांन; ललाट चंदन आडि, नखे ते आंगुल मांन.
मृगचर्म केरी करीय कंथा, उढणइ चित्रित चर्म, मोरपिच्छनु ग्रहयुं आतप, हथईं दंड सुधर्म.
बाणही चिमि चिमि करती चरणे, शिष्यणी परिवार; ध्याननइ वसई घूमती, कर्यउ भंगिनउ आहार.
उच्चरती आसीस उच्च शब्दई, आवी रही नृप तीरि; सभाजननई शांति करती, मंत्र पावनई नीर.
बडबडती वदनई लोक जांणइ, जयई मंत्र वशिष्ट; सीकोत्तरी सवि जास्यइ, नासी, देखतां अहनी दृष्टि. तव दृष्टि संज्ञा भूपई दीधी, बइठी ति अलख कहेवि; राय कहइ तव भगवति, अम्ह विघ्न टालउ हेव.
तव वदइ सुलसायोगिनी, मतिमता सुणि नरनाह, उपगार कारणि विश्वनई, अवतर्यां अम्ह प्रवाह.
उपगार कीजइ शक्तिसारु, अतलुं सार संसारि; उपगार कारणि सूर शसिहर, सुजन जन जलधार. आज रातई इष्ट देवइ, मुझ कहयुं सुपन मझारि, दर्शनी सहुनई राय कोपइ. जनमहइ जांणी मारी.
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