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प्रगट करी ते उपद्रव कारण, कुंण करइ जन मारी जी; कइ तुझ जीवितनइं हु कोप्य उ, ओ जांणे निरधारी जो. वलतउ तहलार बोल्यउ भय चंचल, थ रहर थरहर धूजइ तन्न जी; जांणे अकालइ आव्य उ सीयालउ, गद गद कंठ वचन्न जी. ५ दीन वदन अति चंचल लोचन, तनि वरसइ परसेव जी; गलइ शोष पडतउ ते बोलइ, सुणि करुणाकर देख जी. ६ परि परि सोधि करी मई निरती, माहरी सकतई स्वामी जी; पणि तां प्रगट न थाइ कोई, जोयु ठांमोठांमइ जी. पाखंडी बहुला इणि नयरइं, नरति न लाभइ तेणई जी; कांमण ढूंमण कूड कावडीया, अ जग धूत्यउ जेणइं जो. वजडावी राई ढं ढेरू, ठामी ठामिथी तेह जी; काढवा मांड्या सर्व पाखंडी, जांणा जोसी जेह जी. समरपंथी जोगी जे पडीआ, गणीआ नई दरवेश जी; यती सती मठवासी काढ्या, दर्शनी मात्र ऊसेस जी. सूकुं बलतां नीलू लागइ, अन्याईनइं दोषी जी; साधुजन पणि पीडा पांमइ , न गणाई कांई रोष इं जी. ११ इणि अवसरि ते सुलसा योगिणि, आवी राजदूआरइं जी; प्रतिहारी नई कहइ रायनई वीनवउ, वीनती अक मुझ सार जी. १२ एक कोईनई अपराध ई सहुनई, कोप न कीजिइ चित्तइं जी; भइंसु मांदउ तडिंग डांभीइ, जे नहीं रुडी रीति जी. दोषीनइं हुं प्रगट करूं इम, रायनई जणावी वात जी; राय कहइ जे गाय बालइ, अर्जन तेह विख्यात जी. जे कहइ ते कीजइ दीजइ, नउ आपइ नीभेडी जी; अहवं कहावी वेगई राइ, सुलसायोगिणि तेडी जी.
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