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________________ २० वनतरुनई कहइ सुंदरि, नीर भरि लोअणां रे, खमयो सवि अपराध कि, बांधव मुझतणा रे, लेती कुशम संमार कि. कोमल पल्लवा रे, फल अति मधुर सवादि कि दिनि दिनि नवनवां रे. सहीअ समांणी कोमल, फूल तबके भरी रे, . वेलिस्यउं देई आलिंगन, वली वली हित धरी रे, पुत्र समांणी रोप कि, सी चइ आंसू जलई रे, द्यइ आसीस उदार कि, फलयो बहु फलई रे. वनदेवतिनइं पगि पडी, सीख मागइ सती रे, मोकलावइ केली-शुक, के किस्यउं विलपती रे, इम मत जांणउ हंस ज़े, माया परिहरी रे, मिलवा आवयो वेगि कि, बहिनिनई मनि धरी रे, मृगलीनई कहइ प्रीय सखी, प्रांणथी तुम्हे प्रीया रे, हुं परदेसिणि पंखिणि, ऊतारू मत मया रे, ओ तातजीनउं थानक, तुम्ह सारू कर्यऊं रे, तुम्ह हुँ विचि तात चित्ति कि, न हतुं आंतरं रे. सुत सरिसां मृगबालक, ते सवि खलभल्या रे, चालती जाणी सुंदरी तव, टोलइ मिल्यां रे, जे पाल्यां उच्छंगिकि वाहाला प्रांणथी रे, पोस्यां निज कर प्रेमथी; परवर्या पाखथी रे, ऋषि दत्ता कहइ तेहनइं आंसू वरसती रे, मुझ सरिखी को नीठर, नारी जगि नथी रे; जेहवी आभां छांह कि पांणी लीहडी रे, झबक इ दाख वइ छेह, विदेशी प्रीतडी रे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001581
Book TitleRushidattras
Original Sutra AuthorJayvantasuri
AuthorNipuna A Dalal, Dalsukh Malvania
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size11 MB
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