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चालि हित धरी कोमल अंकि आरोपीनइं सबि तन करि करी फरसतउ , चुंबन देई करी, खि णि खिणि माहर इ, मन मन भाषित हरखतउ अ, वन परि पाटण, माहरइ मनि हतुंः अक ज तई करी तातजी अ, खिण खिण ते गुण समरतइ निसिदिनि, प्रांण न जाइ कांइ तन तिजी मे,
टक
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तन तिजी न जाइ प्रांण, तउ कठिन हुँ निरवांणि परिहरी केहइ दोसि, अति धयु कां त रोस ? मनि हती वात अनंत, कहां वसइ तात उदंत ? बइठी तिरथि पीऊपासि, उत्संगि सुत सुविलासि; सुविलास सुतस्य उं हरखि आवसि, तातजीनई पाय, ते रोर मनोरथ तणी रीतइं, सवि वात रही मनमांहिं.
चालि मनमांहई इम दुख, पामती देखोनई, मधुर वचनि पीउ ठारवइ ओ, सुदरि! मत करि अवडउ सोक ए, सरजित अन्यथा नवि हवइ अ. वासुदेव चक्रवृत्ति, सुरपति जिनवर, बलवंतई मरणस्यउं न बिचलइ ए. कोइ नहीं जगमांहि, सोइ विनांणीहि. काल कुशल नई जे छलइ अ.
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