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(२) छई नो सहायकारक कि. तरीके उपयोग थयेलो जोवा मळे छे.
तई दीधी छई चंग (१.३), पूर्वई छई सुकवि कर्या (१.७), ऋषि कहई मोटी अह छई
वात रे (५.२). (३) संयुक्त क्रियापदोना वपराशना आरंभ जोवामां आवे छे.
जेमके भरवा थयउ (१७.४), जईनई जोई (१६.१७) जोईनई आव्यउ (१६.१८), ग्रही गख्यउ (१७.४), नासी आवी (१७.२१). कर्मणिरूप बनाववा माटे आत्र प्रत्ययना वपराश वधती जती जोवामां आवे छे. उदा.त.
कहावी (१४,१५). (५) तद्भव शब्दोमा अन्त्य के उपान्त्य स्वरयुग्मो अई के अउ माथी के औ संयुक्त स्वरो
दिकस्या छे. छता केटलेक स्थळे अविकसित रूपोनो प्रयोग पण करायेलो जोवामां आवे छे. उ.त. वईरणि
(१६.२०), विरचइ (१२.२), अहवउं (९. १०), बलयउ (९.१०), स्यङ (९८). (६) ऋ कोईक टेकाणे ऋ तरीके ज वपरायेलो छे, ज्यारे कोईक टेकाणे रु लखायो छे. कोईक
टेकाणे तो ऋ, रि मां पण रूपान्तरित थयो छ :
ऋषिदत्ता (१.४), रुषमणि (३.४), रिषिदत्तानई (११.१४). (७) क्वचित् स्वर मध्यवर्ती ई नुं प्रतिसंप्रसारण थयु छे. उ.त. विलेप्यउं (१७.९), चोपड्य
(१७.६) आथम्य (१७.१४), ल्यावई (३.१६) ल्यई (४.१८).
चरणान्त प्रासमां कविझे खूब ज सारो विवेक राज्यो छे. छतां क्वचित् सरखा मेल विनानी
पद्यरचना पण मळे छे. जेम के सप्रेमि-तेम (१३-दू. ६-३) मांहि-दाह (१३-दू. ६-६) (९) कटलाक अर्धतत्सम शब्दोमां विप्रकर्ष जोवा मळे छे. मुगतिइ (१.८), मनमथ (२३)
रतनाली (४.४५). (१०) मूळ संस्कृत न नो प्राचीन गुजरातीमां ण थयो छे. मोहणवेलि (१.२१) (११) संस्कृत शब्दोमांनो श प्रा. गुज.मां बहुधा विकार पामीने स बने छे. उ.त, सोर (१४.१),
रोसई (१४.२), सीयालउ (१४.५), वेस (१५.१). (१२) क्वचित् म सानुस्वार व (=व)रूपे उच्चाराता हशे अम लागे छे. उ.त. कुंअर (सं. कुमार)
नो उच्चार कूवर थतो हशे.
व्याकरण
नाम-नर, नारी अने नान्यतर त्रणे जातिनां नाम आ कृतिमां मळे छे. बहुवचननो सामान्य
प्रत्यय नरजातिमां "आ" अने नान्यतरमां "आं" छे. मानार्थे बहुवचन पण मळे छे
दा.त. भद्रयशो गुरु अहवई, पुहता बनि सुविचारजी. विभक्ति-पहेलीमा प्रत्यय नथी. बीजीमां क्यारेक नई मळे छे. त्रीजीमां असंयुक्त तेम ज
संयुक्त 'इ', 'ई' तथा 'ओ' मळे छ : वेगि, राजाई, वैये. 'थी' पण तृतीया दर्शावता मळे छे : पुण्यथी. 'स्यु' 'सर' 'साथि' अने 'करी' अनुगो पण तृतीयानो अर्थ व्यक्त
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