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परिशिष्ट
दृष्टांत : जिम चिर विरही प्रियुमुख देखी, मनमांहिं पामई हरख विशेषि,
तिम राजा रलीआयत थयउ,जिम ससी देखी चकोर गहगहयउ. (७.३) जोई तु तापस को नहीं, सूनी दीठी आश्रम मही, सर सूकउ पंखी जिम तिजई, नीरसथी श्रोता उभजई. (७.२९) . अति चतुर कुमरनई संगि, सा मुग्धि पिण हुई रंगि, वर कुसुमनइ संबन्धि, अति तैल हुई सुगन्धि. (८.२) कनकरथ मननु मन मांहइ, ईम रह्यउ अवटाइ. जिम पंखी पांजरडई घाल्यउ, पणि नवि चालइ कांई. (१६.८) सा रोइ रही आपोआपई रे, जिम सायरई लहिरी व्यापइ रे. (२१.४) । भोजन पांमी भावतुं, भूख्यउ न सहई विलंब दे,
तिम प्रियप्रापति कारणई, विरही हुइ उत्तभ दे. (३५.६) वगेरे. व्यतिरेक : मुखससि जितइ ससीहर मंडल, दीसइ कलंक संभार. (४.२४)
नगरी काबेरी, अमरपुरीथी जे अधिकेरी, सोभा जस बहुतेरी. (२.१) जीती वीणा मधुरिमा, कलकंठी सुकुमाल. (४.२५) नवनीत पांहिं कुंअली, हूंती जस तनवाडी (२०.१०) जे परमाणूं रे ते घडतां रहया, तेहनी रंभा कीध, जांणउं चंदउ रे तसु मुखदासडउ, दीसइ अंक प्रसिद्ध. (३१.३) मृग जिता सेवई वनवासो, पंकज नीरि पडंति,
एक ठामि न रहइ वली खंजन, मनमइ भीति वहंति. वगेरे (४.२३) अतिशयोक्ति : रडी, भर्यां तलाव कि, ससनेही खरी रे. (९.१७)
...प्रासाद... गगनस्यउ मंडई वाद. (४.४२) परवत फाटइ इणई दुखई, नीलां झाड सुकाई, ऋषिदत्ता पंथि सांचरई, अति आकुल थाई. (२०.१) गंगावेलू रे सायर जलकणा, जे गणी पामइ पार,
ते पणि तेहना गुण न गणी सकई, जिहवा सहिस उदार. (३१.८) वगेरे. अर्थान्तरन्यास:
समुद्र मर्यादा किम तिजइ ? छंडई गिरी किम ठाइ ? जेणई जनमाहिं हासुं हुवई, किम करई उत्तम तेह ? (१३.२) एक कोईनई अपराधई सहुनई, कोप न कीजइ चित्तई जि,
भईसु मांदउ तडिंग डांभीइ, ए नहीं रूडी रीति जि. (१४. १३) वगेरे लेष :- इणि वातइ म करस्यउ प्रांण, तउ निश्चई लेस्यउ प्राण. (२९.३)
(प्राण= (१) हठ, बळ. (२) जीव.) वादलमांहिथी सूर प्रगटयउ हुई जिस्यु, रणजित्या जिम सूर दीपति उहल्लस्यु. (३६.२)
(सूर= (१) सूर्य, (२) शूरवीर) (नोंधः- उपर उदाहरणरूपे ज थोडा अलंकारो नोंध्या छे. बधा ज
अलंकार व्यवस्थित रीते नोंधवानो आशय नथी.)
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