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[ द्वि० प० कारिका २६
देपि तदागमाद्व्यवच्छेद्यव्यवच्छेदक सद्भावसिद्धेः कथमद्वैतसिद्धिः ? आम्नायस्य परब्रह्मस्वभावत्वेपि न ततस्तदद्वैत सिद्धि:, 'स्वभावस्वभाववतोस्तादात्म्यैकान्तानुपपत्तेः ।
अष्टसहस्री
[ स्वसंवेदनप्रत्यक्षेण ब्रह्मणः सिद्धिर्भविष्यति तस्य विचारः । ]
स्वसंवेदनमेव पुरुषाद्वैतसाधनमिति चेन्नंतदपि सारं, निगदितपक्षदोषोपनिपातात् । तथा हि । ' तत्सिद्धिर्यदि साधनात्साध्यसाधनयोस्तहि द्वैतं स्यात् । अन्यथाऽद्वैतसिद्धिवद्वंतसिद्धिः कथं न स्यात् ? स्वाभिलापमात्रादर्थसिद्धौ सवं सर्वस्य सिध्येत् । न हि
चेतनाचेतनात्मक वस्तुओं में द्वैत के प्रपंच का आरोप चला आ रहा है उस आराप को दूर करने के लिये आगम वाक्य से ही उनमें एक अद्वैतरूप ब्रह्मत्व का विधान हम कर देते हैं ।
जैन - तब तो ब्रह्मत्व के साधक आगम से व्यवच्छेद्य और व्यवच्छेदक भाव का सद्भाव सिद्ध सिद्धि कैसे हुई ? अर्थात् इस तरह से द्वैत प्रपंचारोप तो व्यवच्छेद्य है और आगम उसका व्यवच्छेदक है पुनः सर्वथा अद्वैत कैसे रहा ?
अद्वैतवादी - हम आगम को परमब्रह्म स्वभाव ही स्वीकार करते हैं ।
जैन - ऐसा मानने पर भी उस आगम से अद्वैत की सिद्धि न होकर द्वैत ही रहा क्योंकि स्वभाव और स्वभाववान् में एकांत से तादात्म्य - अभेद बन नहीं सकता है अर्थात् जिस स्वभाववान् का यह स्वभाव होगा उसमें स्वभाव और स्वभाववान् की अपेक्षा कथंचित् भेद माना ही जायेगा ।
[ स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से परमब्रह्म की सिद्धि होती है इस पर विचार । ]
अद्वैतवादी - स्वसंवेदन ही पुरुषाद्वैत का साधन है अर्थात् पुरुषाद्वैत की सिद्धि करने में स्वअद्वैत का संवेदन ही साधन हेतु है ।
जैन- आपका यह कथन भी सारभूत नहीं है क्योंकि उपर्युक्त पक्ष में दिये गये सभी दोष इसमें भी आ जाते हैं । तथाहि - "यदि हेतु से उस अद्वैत की सिद्धि होती है तब तो साध्य और हेतु ये दो होने से द्वैत की ही सिद्धि हुई । अन्यथा - यदि हेतु के बिना ही उस अद्वैत की सिद्धि मानों तब तो हेतु के बिना ही द्वैत की सिद्धि भी क्यों नहीं हो जायेगी ? यदि स्ववचन मात्र से ही अर्थ - अद्वैत को सिद्धि कहोगे तब तो सभी वादियों के सभी इष्टमत सिद्ध हो जायेंगे । "
स्वसंवेदन हेतु भी आत्मा-परमब्रह्मा से अभिन्न ही नहीं है अन्यथा उसमें हेतुत्व का ही विरोध
1 आशंक्यम् । दि० प्र० । 2 आगमात् । आम्नायात्तस्य परमब्रह्माद्वैतस्य सिद्धिर्न । दि० प्र० । 3 गुणगुणिनोः आगमपरमब्रह्मणोः सर्वथा ऐक्यं नोत्पद्यते किन्तु कथञ्चिदतादात्म्यमुपपद्यते । दि० प्र० । 4 पूर्वोक्त । दि० प्र० । 5 अद्वैतस्य । ब्या प्र० । 6 ब्रह्म । दि० प्र० 17 स्वसंवेदनप्रत्यक्षादान्तरङ्गात् । दि० प्र० । 8 ब्रह्मसंवेदनयोः । दि० प्र० । 9 आत्मवचनमात्रादर्थसिद्धी सत्यामात्मवादिनः शून्यवादिनश्च सर्वस्य सर्वमिष्टं सिद्धं भवेत् । दि० प्र० ।
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