SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ब्रह्माद्वैतवाद का खण्डन ] तृतीय भाग [ २१ स्वसंवेदनमपि 'साधनमात्मनोनन्यदेव साधनत्वविरोधात् अनुमानागमवत्साध्यस्यैव' साधनत्वापत्तेः प्रकृतानुमानागमयोरिव स्वसंवेदनप्रत्यक्षस्यापि साधनस्याभावात् । स्वतः सिद्धं ब्रह्म त्यभ्युपगमे द्वैतमपि स्वतः सकलसाधनाभावेपि किं न सिध्येत् ? तत्त्वोपप्लवमात्र वा ? नैरात्म्यं वा ? स्वाभिलापमात्राविशेषात् । 'सर्वस्य सर्वमनोरथसिद्धिरपि दुनिवारा स्यात् । एतेनैतदपि प्रत्याख्यातं यदुक्तं बृहदारण्यकवातिके "आत्मापि सदिदं ब्रह्म मोहात्पारोक्ष्यदूषितम् । ब्रह्मापि' स तथैवात्मा सद्वितीयतयेक्ष्यते ॥१॥ हो जायेगा क्योंकि सर्वथा अभेद पक्ष के स्वीकार करने पर अनुमान और आगम के समान साध्य को ही साधनपने की आपत्ति आ जायेगी अत: "प्रतिभाससमानाधिकरणत्वात्" इस प्रकृत अनुमान और आगम के समान ही स्वसंवेदन प्रत्यक्ष भी साधन नहीं हो सकता है क्योंकि पृथक रूप से उसका अभाव है। [यह ब्रह्म स्वतः ही सिद्ध है ऐसा मानने पर जैनाचार्य खंडन करते हैं ।] अद्वैतवादी- हमारे यहाँ ब्रह्म स्वतः ही सिद्ध है, तब तो सिद्ध करने की आवश्यकता ही नहीं है। जैन-तब तो सकल साधन के अभाव में हम लोगों का द्वैतवाद भी स्वतः ही क्यों नहीं सिद्ध हो जावेगा? अथवा तत्त्वोपप्लव मात्र भी स्वतः ही क्यों नहीं सिद्ध हो जावेगा? अथवा नैरात्म्य मात्र भो क्यों नहीं सिद्ध हो जावेगा? क्योंकि स्ववचन मात्र से सिद्धि तो सभी में समान ही है एवं सभी के सर्व मनोरथों की सिद्धि भी दुनिवार (बेरोकटोक) ही हो जायेगी, कोई उनका निवारण नहीं कर सकेगा। इसी कथन से उनका भी खण्डन कर दिया गया है कि जिन्होंने "बृहदारण्यक" वार्तिक में कहा है कि श्लोकार्थ-आत्मा भी सत् है अतः वह भी ब्रह्म ही है किन्तु मोह से परोक्ष से दूषित है अर्थात् "सत्रूप यह ब्रह्म है और यह आत्मा है" इस प्रकार के भेदरूप से प्रतिभासित होता है। उसी प्रकार से ब्रह्म भी वह आत्मा ही है किन्तु द्वितीयरूप से सहित दिखता है ॥१॥ 1 अनुमानस्य साध्येन एकत्वात्साध्यमेव साधनं स्यात् । दि० प्र०। 2 हे अद्वैतवादिन् । स्वसंवेदनं नाम साधनं परमब्रह्मणः सकाशादभिन्नं न हि कोर्थः भिन्नमेव इत्यायातम् । भिन्नेन भवति चेत्तदा ब्रह्माद्वैतस्य साधनत्वं विरुद्धयते कथं एक ब्रह्म। द्वितीयं स्वसंवेदनं तथापि द्वैतमायातम् । यथानुमानागमो साध्यस्यैव साधनत्वमापद्यते । तदेव साध्यं तदेव साधनं स्वसाध्यं कथं साधयति । दि० प्र०। 3 ब्रह्माणि प्रविष्टत्वात् । दि०प्र० । 4 सकल. साधनाभावे कि न सिद्धचेदिति संबन्धः कार्यः। दि० प्र०। 5 वादिप्रतिवादिनः । दि० प्र०। 6 आत्माप्रसिद्धः परमब्रह्माऽसिद्धः । ब्या० प्र०। 7 प्राक ब्रह्मण: प्रधानत्वमत्र तु आत्मनः प्रधानत्वम् । ब्या प्र० । 8 दूषितम् । ब्या० प्र०। १द्वितीये न ब्रह्मणा सह वर्तते । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy