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ब्रह्माद्वैतवाद का खण्डन ]
तृतीय भाग
'ब्रह्म ति ब्रह्मशब्देन कृत्स्नं वस्त्वभिधीयते । प्रकृतस्यात्मकात्य॑स्य वै-शब्दः स्मृतये मत:'
इति 'श्रुतिव्याख्यानात् । ततोनवद्याद्धेतोर्भवत्येवाद्वैतसिद्धिः । तथोपनिषद्वचनादपि' 'सर्वं वै खल्विदं ब्रह्म' इत्यादिश्रुतिसद्भावात्', ततस्तद्भ्रान्तिनिराकरणात्' इति ।
[ इत्यमद्वैतवादिभिः स्वपक्षः समर्थित आचार्या अग्रेतनकारकाभिस्तन्निराकरणं कुर्वन्ति । ] 'तदेतत्प्रतिविधित्सवः प्राहुः
'हेतोरद्वैतसिद्धिश्चेद्वैतं स्याद्धेतुसाध्ययोः । हेतुना चेद्विना' सिद्धिद्वैत वाङ्मात्रतो न किम् ॥२६॥
श्लोकार्थ-"ब्रह्म' इस प्रकार इस ब्रह्म शब्द से सम्पूर्ण वस्तु कही जाती है ! प्रकृत और आत्मकात्य॑-(आत्मा-ब्रह्म, सभी आत्मा ही हैं अर्थात् सभी ब्रह्म स्वरूप हैं) की स्मृति के लिये शब्द शास्त्र माने गये हैं ऐसा श्रुति में व्याख्यान पाया जाता है। इसलिसे इस निर्दोष हेतु से अद्वैत की ही सिद्धि होती है । तथा उपनिषद् के वाक्य से भी सिद्धि होती है-"सर्वं वै खल्विदं ब्रह्म" यह सभी जगत् ब्रह्मस्वरूप ही है इत्यादि श्रुति का सद्भाव पाया जाता है अत: इस उपनिषद् वाक्य से ही उस अद्वैत की भ्रांति का निराकरण हो जाता है । इस प्रकार से अद्वैतवादी ने अपना पूर्व पक्ष समर्थित किया है।
[ आगे की कारिका में आचार्य उसका खण्डन करेंगे। ] उत्थानिका-अब इस ब्रह्माद्वैतवादी के पक्ष खण्डन करने की इच्छा रखते हुए श्री समंतभद्राचार्यवर्य कहते हैं
यदि अद्वैतसिद्धि हेतू से, तब तो साध्य और साधक । द्वैत हुये क्योंकि ब्रह्मा है, साध्य, हेतु उसका ज्ञापक ।। यदी हेतु के बिना सिद्ध है, यह "अद्वैत" वचन से ही।
तब तो द्वैतसिद्धि भी क्यों नहि, होवे वचनमात्र से ही ॥२६॥ कारिकार्थ-यदि हेतु से अद्वैत की सिद्धि होती है तब तो हेतु और साध्य ये दो हो गये अतः द्वैत ही सिद्ध हुआ न कि अद्वैत । और यदि हेतु के बिना वचन मात्र से अद्वैत की सिद्धि होती है तब तो वाङ्मात्र से ही द्वैत की सिद्धि क्यों न हो जावे ॥२६।।
1 सर्व वै खल्विदं ब्रह्मत्यादि श्रुतेः। ब्या० प्र०। 2 वेद। दि० प्र०। 3 वेदवाक्यमपि नास्तीत्याशंकायामाह । ब्या० प्र०। 4 तथापि ब्रह्मसिद्धिः कुतः । ब्या० प्र० । 5 निराकर्तुमिच्छा वा इत्यर्थः । ब्या० प्र०। 6 सूरयः । ब्या० प्र०। 7 का। ब्या० प्र०। 8 प्रतिभासमानत्वप्रतिभासन्त प्रविष्टयोः । दि० प्र०। 9 आगमात् । दि० प्र० । 10 अद्वैतस्य । दि० प्र० ।
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