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[ ११
ब्रह्माद्वैतवाद का खण्डन ]
तृतीय भाग कर्मद्वैतं फलद्वैतं 'लोकद्वैतं च नो भवेत् ।
विद्याऽविद्याद्वयं न स्याद्बन्धमोक्षद्वयं तथा ॥२५॥ लौकिकं वैदिकं च कर्मेति वा कुशलमकुशलं च कर्मानुष्ठानमिति वा पुण्यं पापं च कर्मेति वा कर्मद्वैतं न स्यात् । तदभावादिहामुत्र च श्रेयःप्रत्यवायलक्षणं फलद्वैतं न स्यात्, कारणाभावे कार्यस्यानुत्पत्तेः । तत एवेहलोकपरलोकलक्षणं लोकद्वैतं न स्यात् । कर्मादिद्वैतस्यानाद्यविद्योपर्शितत्वाददोष इति चेन्न, धर्माधर्मद्वैतस्याभावे विद्याविद्याद्वयस्यासंभवा
द्बन्ध''मोक्षद्वयवत् । पूर्वाविद्योदयादेव विद्याविद्याद्वयं बन्धमोक्षद्वयं च, परमार्थतस्तदसंभवात् 'न बन्धोस्ति न वै मोक्ष इत्येषां परमार्थता' इति प्रवचनात् प्रतिभासमात्रस्य परब्रह्मण
उत्थानिका - उसी प्रकार से अद्वैतकांत में अन्य और दूषणों को दिखलाते हुये श्री समंतभद्राचार्यवर्य कहते हैं
पुण्य-पाप द्वय, सुख-दुःख फल द्वय, इह-परलोक द्वैत जग में। विद्या और अविद्या द्वय अरु, बंध-मोक्ष द्वय नहिं होंगे ।। इन द्वैतों में एक द्वैत भी, यदि मानों अद्वैत नहीं।
अतः ब्रह्म या शब्द, ज्ञानमय, जगत् एकमय घटे नहीं । २५।। कारिकार्थ-इस अद्वैत एकांत पक्ष में दो कर्म, दो फल, दो लोक नहीं बन सकते हैं उसी प्रकार से विद्या और अविद्या, बंध और मोक्ष भी घटित नहीं हो सकते हैं ॥२५॥
___लोक में और वेद में "कर्म" इस शब्द से दो का ग्रहण किया गया है। अथवा कुशल, अकुशल कर्म के अनुष्ठान से भी कर्म के दो भेद हैं। अथवा पुण्य और पाप के भेद से भी कर्म के दो भेद हैं। ये दो भेद अद्वैत में नहीं हो सकते हैं। उन कर्म द्वैत का अभाव हो जाने से इहलोक और अमुत्र-परलोक में श्रेय-प्रत्यवाय सूख और दुःख लक्षण फलद्वैत भी नहीं हो सकता है क्योंकि कारण के अभाव में कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। इसी हेतु से इहलोक परलोक लक्षण वाला लोकद्वैत भी नहीं हो सकेगा।
अद्वैतवादी-ये कर्मादिद्वैत अनादि अविद्या से ही होते हैं अतः हमारे यहाँ कोई दोष नहीं है।
जैन-ऐसा नहीं कह सकते । धर्म अधर्म रूप द्वैत का अभाव होने पर विद्या और अविद्या ये दोनों असंभव हैं। जैसे कि बंध और मोक्ष दोनों असंभव हैं।
1 लौकिकं कृष्यादि वैदिकं नित्यनैमित्तिकम् । पुण्यपापं वा । दि० प्र०। 2 सुखं दुखम् । दि०प्र०। 3 इहलोक परलोक । दि० प्र०। 4 अद्वैते । दि० प्र०। 5 सम्यग्ज्ञानं मिथ्याज्ञानं वा। दि० प्र०। 6 पापकार्यं धर्मकार्य वा। दि० प्र०। 7 तस्मात् । दि० प्र०। 8 प्रशस्ताप्रशस्तम् । दि० प्र०। 9 कर्मद्वैतम् । दि० प्र०। 10 पुण्यपाप । दि० प्र०।11 पापकार्यम् । दि० प्र० । 12 धर्मकार्यम् । दि० प्र० । 13 इत्येषां परमेति वा पाठः । दि० प्र०।
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