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[ दि० प्र० कारिका २५
एव तात्त्विकत्वादिति चेन्न, नैरात्म्यस्यापि तात्त्विकत्वापत्तेस्तत्कल्पनाया नैष्फल्याविशेषात् । सर्वो हि प्रमाणप्रत्यनीकं स्वमनीषिकाभिरद्वतमन्यद्वा किंचित्फलमुद्दिश्यारचयेत्, अन्यथा तत्प्रति प्रवर्तनायोगात्प्रेक्षावृत्तेः । तथाहि । 'पुण्यपाप सुखदुःखेहपरलोकविद्येतरबन्धमोक्षविशेषरहितं ' 'प्रेक्षापूर्व कारिभिरनाश्रयणीयम् । यथा नैरात्म्यदर्शनम् । तथा च प्रस्तुतम् । तस्मात्प्रेक्षापूर्वकारिभिरनाश्रयणीयम् । इति न तज्जिज्ञासापि' श्रेयसी ।
अष्टसहस्री
[ ब्रह्माद्वैतवादी सर्व चेतनाचेतनपदार्थान् ब्रह्मणो ऽतः प्रविष्टमेव मन्यते तस्य पूर्वपक्ष: । ] स्यान्मतं "न ब्रह्माद्वैतं प्रमाणप्रत्यनीकत्वात् स्वमनीषिकाभिरारचितं, तस्यानुमानादागमाद्वा प्रमाणात्प्रसिद्धेः । तथा हि । 'यत्प्रतिभाससमानाधिकरणं तत्प्रतिभासान्तः प्रविष्टमेव ।
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अद्वैतवादी - पूर्व - अनादिकालीन अविद्या के उदय के निमित्त ही विद्या और अविद्या तथा बंध और मोक्ष द्वैत होते हैं । वास्तव में वे द्वैत असंभव ही हैं । हमारे यहाँ प्रवचन में कहा भी है"न बंधोऽस्ति न वै मोक्ष इत्येषा परमार्थता ।" न बंध है न मोक्ष है इस प्रकार का कथन परमार्थभूत है | अतः प्रतिभासमात्र परम ब्रह्म ही तात्त्विक है ।
द्वारा
जैन - ऐसा भी नहीं कह सकते अन्यथा नैरात्म्य दर्शन भी तात्त्विक हो जायेगा। क्योंकि परंब्रह्म और नैरात्म्य की कल्पना में निष्फलता समान ही है । सभी जनों को अपनी बुद्धि प्रमाण से विरुद्ध अद्वैत अथवा सर्वथाद्वैत रूप मत की रचना करते समय कुछ न कुछ फल का उद्देश्य करके ही करना चाहिये । अन्यथा - फल के बिना उस मत के प्रति प्रेक्षापूर्वका रोजनों- बुद्धिमानों की प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी। तथाहि - "पुण्य-पाप, सुख-दुःख, इहलोक - परलोक, विद्या अविद्या, बंध और मोक्ष विशेष से रहित मत प्रेक्षापूर्वकारी - विद्वानों के द्वारा आश्रयणीय नहीं है जैसे नैरात्म्य दर्शन । और उसी प्रकार से प्रस्तुत - अद्वैत है अतः विद्वानों के द्वारा आश्रय करने योग्य नहीं है, इसलिये उसके जानने की इच्छा भी श्रेयसी नहीं है ।
[ ब्रह्माद्वैतवादी सभी चेतन अचेतन पदार्थों को ब्रह्म के अंतःप्रविष्ट ही मानता है, उसका पूर्वपक्ष 1
अद्वैतवादी - अपनी बुद्धि के द्वारा रचित ब्रह्माद्वैत सिद्ध है क्योंकि प्रमाण प्रत्यनीक - विपरीत नहीं है । वह अनुमान प्रमाण अथवा आगम प्रमाण से प्रसिद्ध है । तथाहि - "जो अन्तर्बहिर्वस्तु प्रतिभास समानाधिकरण है वह प्रतिभास के अंतः प्रविष्ट ही है, जैसे कि प्रतिभास का स्वरूप और सभी वस्तु
1 तत्त्वोपप्लववादिमतस्य । शून्यस्य । दि० प्र० । 2 बुद्धिभिः । दि० प्र० । 3 यत् । ब्या० प्र० । 4 रहितत्वादिति हेतुः । व्या० प्र० । 5 अद्वैतं पक्षः प्रेक्षापूर्व कारिभिरनाश्रयणीयं भवतीति साध्यो धर्मः पुण्येत्यादिविशेषरहितत्वात् । व्याप्तिः । यथा नैरात्म्यं पुण्यपापसुखदुःखेहपरलोकविद्याविद्याबंधमोक्षरहितञ्चेदं प्रस्तुतं तस्मात्प्रेक्षापूर्वकारिभिरनाश्रयणीयम् । तत् । दि० प्र० । 6 अथातो ब्रह्मजिज्ञासा इति वेदितव्यासवचनं व्यर्थमित्यर्थः बन्धमोक्षादिफलाभावे न तदज्ञानस्य च तदाश्रयणस्य च वैयर्थ्यादिति भावः । दि० प्र० । 7 विशिष्टत्वात् । दि० प्र० । विरुद्धत्वात् । ब्या० प्र० । 8 प्रतिभासेन ज्ञानेन समानमधिकरणमाश्रयो यस्य । दि० प्र० ।
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