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अष्टसहस्री
[ दि० प्र० कारिका २४
प्रतिभासेन' व्यभिचार इति न क्वचिद्व्यवतिष्ठेत' । कश्चिदाह 'ब्रह्माद्वैतस्य संविन्मात्रस्य स्वतःसिद्धस्य क्रियाकारकभेदप्रत्यक्षादीनां बाधकस्य भावात्तेषां भ्रान्तत्वम् । ततो न तद्विरोधकत्वम्' इति तदपि न साधीयः, तथा सति बाध्यबाधकयोर्भेदात्, 'द्वैतसिद्धिप्रसङ्गात् । न च परोपगममात्रात्तयोर्बाध्यबाधकभावः, परमार्थतस्तदभावापत्तेः 'प्रतिभासमात्रवत्प्रतिभासमात्रविशेषस्यापि सत्यत्वसिद्ध रनेकान्तव्यवस्थानात् । तदेकान्ततः पुरुषाद्वैतं प्रत्यक्षादिविरुद्धमेव । तथास्मिन्नद्वैतैकान्ते दूषणान्तरमुपदर्शयन्तः प्राहुः ।--
अद्वैतवादी-उस स्वपर की स्वीकृतिरूप भेद प्रतिभास को भी पर की स्वीकृति से ही मानते हैं अतः वह सच्चा है, इसीलिये दोष का अभाव है।
जैन-तब तो वह भी उनके भेद प्रतिभास 'से व्यभिचरित हो जायेगा, पुनः इस प्रकार से भेद प्रतिभास में पक्षादि के मिथ्यात्व एवं सत्यत्व की व्यवस्था ही नहीं बन सकेगी।
अद्वैतवादी-स्वतः सिद्ध, संविन्मात्र ब्रह्माद्वैत ही क्रियाकारक भेद और प्रत्यक्षादिकों का बाधक है अतः वे क्रियाकारकादि भेद भ्रान्त हैं इसलिये वे अद्वैत के विरोधक नहीं हैं।
जैन-ऐसा भी सिद्ध करना ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर भी बाध्य और बाधक ये दो होने से भेद सिद्ध है अर्थात् क्रिया कारकादि भेद बाधित होने योग्य होने से बाध्य हैं एवं परमब्रह्म उनका बाधक है। बाध्य-बाधक रूप से द्वैत सिद्ध ही है अत: द्वैत सिद्धि का ही प्रसंग आता है। परोपगममात्र-अन्य की स्वीकृति मात्र से उन दोनों में बाध्य-बाधक भाव नहीं है। अन्यथा परमार्थ से उन बाध्य-बाधक भाव का ही अभाव हो जायेगा अर्थात् बाध्य-क्रियाकारकादि भेद और बाधक-परम ब्रह्म ये दोनों यदि वास्तविक नहीं हैं तब तो प्रतिभासमात्र सामान्य परमब्रह्म के समान प्रतिभास मात्र विशेषरूप क्रियाकारकादि भी सत्य-वास्तविकरूप सिद्ध हो जायेंगे पुनः अनेकांत की ही व्यवस्था हो जायेगी।
इसलिये एकांत से पुरुषाद्वैत प्रत्यक्षादि से विरुद्ध ही है, यह सिद्ध हुआ। 1 तयोः स्वपराभ्युपगमान्तर योर्भेदः कथं पराभ्युपगमान्तरमेकमभ्युपगमश्च द्वितीयो भेद इति । दि० प्र० । 2 ज्ञानमात्रस्य । दि० प्र० । 3 ज्ञातस्य । ब्या० प्र०। 4 हे अद्वैतवादिन् तद्विरोधकं न । तदीदृशं तव वचः साधु स्ति । तथा सति संविन्मात्रे स्वत: सिद्धे। ब्रह्माद्वैते क्रियाकारकभेदप्रत्यक्षादीनां बाधके सतीदं बाधकं एते बाध्या इति भेदात् द्वैतसिद्धिः प्रसजतीति । दि० प्र०। 5 द्वैतसिद्धिर्भयादेव संशयविपर्यासादिषु ज्ञानापहारो वा विषयापहारो वा इत्यादिना बाध्यबाधकभाव्ये निराक्रियतेऽद्वतिनातोयुक्तमेवेदं विशेषणम् । दि० प्र०। 6 तहि। तयोः परोपगममात्राद्वाध्यबाधकभावो न किन्तु परमार्थतो बाध्यबाधकभावापत्तेः । दि० प्र०। 7 यथा प्रतिभासमात्रात्तयोरद्वंतक्रियाकारकभेदयोः बाध्यबाधकभावो न घटते प्रतिभासमात्रविशेषस्य सत्यत्वं सिद्धयति तदा किम् । अनेकान्तव्यवस्थापनं स्वयमेव घटते । ज्ञानमात्र । दि० प्र०। 8 भा। ब्या० प्र० ।9 प्रत्यक्षादिविरोधलक्षणं दूषणं यथा। ब्या०प्र०।
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