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ब्रह्माद्वैतवाद का खण्डन ]
तृतीय भाग
पाणिनौदनमित्यादि प्रत्यक्षं भ्रान्तं येनाद्वैतस्य विरोधकं न ' स्यात् । सर्वत्र क्रियाकारकादिरूपं कथंचिद्भिन्नं, भिन्नप्रतिभासित्वान्यथानुपपत्तेरित्यनुमानं वा नानाजीवा इत्यादिप्रवचनं' वा न विभ्रमाक्रान्तं येनाद्वैतं न विरुन्ध्यात्' । स्यादाकृतं 'विवादापन्नं प्रत्यक्षादि मिथ्यैव, भेदप्रतिभासित्वात् स्वप्न प्रत्यक्षादिवत्' इति तदसत् ', प्रकृतानुमाने पक्षहेतुदृष्टान्तभेदप्रतिभासस्यामिथ्यात्वे तेनैव' हेतोर्व्यभिचारात् तन्मिथ्यात्वे तस्मादनुमानात्साध्याप्रसिद्धेः' । "पराभ्युपगमात्पक्षादिभेदप्रतिभासस्यामिथ्यात्वे न दोष इति चेन्न "स्वपराभ्युपगमभेदप्रतिभासेन व्यभिचारात् । तस्यापि पराभ्युपगमान्तरादमिथ्यात्वाद्दोषाभावे स एव तद्भ ेद 2
न सिद्ध कर सकें अर्थात् ये अद्वैतको विरुद्ध ही सिद्ध करते हैं । देखिये ! प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम के द्वारा क्रियाकारकादि भेद अद्वैत में सिद्ध है अतः ये प्रमाण उस अद्वैत को बाधित करके द्वैत को स्थापित कर देते हैं ।
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अद्वैतवादी - “विवादापन्न प्रत्यक्षादि मिथ्या ही हैं क्योंकि वे भेदरूप प्रतिभासित होते हैं, स्वप्न के प्रत्यक्षादि के समान ।"
जैन - यह कथन भी असत् है । हम आपसे यह प्रश्न करते हैं कि इस प्रकृत अनुमान में पक्ष, हेतु दृष्टांत रूप जो भेद का प्रतिभास है वह सम्यक् है या मिथ्या है ? यदि सम्यक् मानों तब तो उसी से ही हेतु में व्यभिचार आ जाता है । अर्थात् आपने जिस अनुमान वाक्य के प्रत्यक्ष अनुमान आदि को ही मिथ्या कहा है और अपने इस अनुमान को सम्यक् समझकर प्रयोग कर रहे हैं अतः अनैकांतिक दोष आता ही है । यदि प्रकृत अनुमान के इन पक्ष, हेतु, दृष्टांत आदि भेद को मिथ्या कहें तब तो उस मिथ्या अनुमान से साध्य की सिद्धि ही नहीं हो सकेगी ।
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अद्वैतवादी– दूसरों के स्वीकार करने से पक्षादि भेद के प्रतिभास को हम सच्चा मान लेते हैं अतः दोष नहीं आता है ।
जैन - ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि अपने और पर की स्वीकृति के भेद प्रतिभास से व्यभिचार आता है अर्थात् स्व-पर के भेद से प्रतिभास के दो भेद हो जाते हैं ।
1 प्रत्यक्षम् । दि० प्र० । 2 जैनागमः । दि० प्र० । 3 कुतः । दि० प्र० । 4 विरुद्धयते । इति पाठान्तरम् । दि० प्र० । 5 कारकादि । ब्या० प्र० । 6 स्याद्वादी आह तत्ते वचोऽसत्यम् । दि० प्र० । 7 पक्षादिनासत्यभूतेन । पक्षहेतुभेदप्रतिभासेनैव । दि० प्र० ) । 8 पक्षादीनामसत्यभूतत्वे । दि० प्र० । 9 पक्षाद्य सत्यभूतात्तस्मादनुमानान्मिथ्या भवति इति साध्यस्य सिद्धिर्न स्यात् । दि० प्र० । 10 हे अद्वैतवादिन् ! सत्यत्वमनुमानस्य स्वाभ्युपगमात्पराभ्युपगमाद्वा इति स्याद्वादिना पृष्टे पर आह । दि० प्र० । जैनादीनाम् । व्या० प्र० । 11 यसः । व्या० प्र० । 12 अमिथ्यात्वरूपेण । व्या० प्र० । स्याद्वादी आह । हे अद्वैतवादिन् तावकः पराभ्युपगमः स्वतः सत्यभूतः परतो वेति विचारः । स्वतः सिद्धश्चेत् द्वैतप्रसंग: पर आह अन्यस्मात्पराभ्युपगमात्सत्यत्वे दोषाभाव एवं तहि तत्पराभ्युपगमान्तरमन्यदपेक्षते तदन्यत्तदन्यदपेक्षते एवं सति क्वचिन्न व्यवतिष्ठेत् । तथा सति तयोः स्वपराभ्युपगमयोः भेदप्रतिभासेन व्यभिचारो घटते । दि० प्र० ।
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