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[ द्वि० प० कारिका २४
'पुनरेकमेव, तद्धेतुवासनाभेदाभावप्रसङ्गात्, जाग्रद्दशायामिव 2 स्वप्नादिदशायामपि पुंसोनेकशक्त्यात्मकस्य क्रियाकारक विशेषप्रतिभासवै चित्र्यव्यवस्थितेः ।
अष्टसहस्री
[ एकनिरंशात्मादो कारकाद्यालंबनं यथा तथैव एकस्मिन् ब्रह्मणि कारकाद्यालम्बने भवेत् का बाधा ? इति प्रश्ने सति प्रत्युत्तरं । ]
कस्यचिदेकरूपस्यात्मगगनादेरप्यनेकान्तवादिनामनेकक्रियाकारक विशेष प्रतिभासालम्बनत्वसिद्धेर्विरुद्धमेतत्प्रत्यक्षादिभिरद्वैतम् । न हि करोति कुम्भं कुम्भकारो दण्डादिना, भुङ्क्ते
अद्वैतवादी - एक ही परमब्रह्म में क्रियाकारक आदि भेद प्रत्यक्षादि से संभव है स्वप्न संवेदन के समान । पुनः अद्वैतवाद विरुद्ध कैसे हो सकता है ? अर्थात् - जैसे एक ही स्वप्न ज्ञान में गज, तुर आदि अनेक वस्तुयें प्रतिभासित होती हैं, उसी प्रकार से एक ही परमब्रह्म घटपटादि अनेकों का प्रतिभास होने पर भी अद्वैत में कुछ भी विरोध नहीं है ।
जैन- नहीं, स्वप्न संवेदन को एकरूप स्वीकार करने पर भी अद्वैत पक्ष में रूप दोष तदवस्थ - ज्यों की त्यों ही । उस स्वप्न संवेदन में विशेष का संबेदन अन्य ही है एवं कारक विशेष संवेदन अन्य प्रत्यक्ष अनुमानादि भी एक ही नहीं हैं । अन्यथा - यदि एक ही भेद के अभाव का प्रसंग आ जायेगा, जो कि आप वेदांतियों को वासना के निमित्त से भेद माना ही है । जाग्रत दशा के समान ही स्वप्न दशा में भी अनेक शक्त्यात्मक पुरुष ब्रह्म में क्रियाकारक विशेष के प्रतिभास की विचित्रता भेद व्यवस्थित ही है ।
कहे गये विरोधभी अपनी वासना से उत्पन्न हुआ क्रिया ही है जो कि एक नहीं है । अथवा मानो तब तो उन-उन हेतुक वासना के भी इष्ट नहीं है । अर्थात् आपने भी
[ एक निरंश आत्मा आकाशादि में जिस प्रकार से अनेक कारकादि का आलंबन है उसी प्रकार से ब्रह्मा में भी अनेक कारकादिकों का आलंबन हो जावे क्या बाधा
है ? ऐसी शंका के होने पर आचार्य उत्तर देते हैं । ]
अनेकांतवादियों के यहाँ किसी एकरूप (निरंश) आत्मा, आकाश आदि में भी क्रियाकारक विशेष प्रतिभास का आलंबन सिद्ध है । अतः यह अद्वैत प्रत्यक्षादि से विरुद्ध है । उसी का स्पष्टीकरणकुम्भकार दण्ड, चक्र आदि से कुम्भ को बनाता है, हाथ से भात को खाता है इत्यादिरूप से प्रत्यक्षज्ञान भ्रान्त नहीं है । जिससे कि वह प्रत्यक्ष अद्वैत का विरोध करने वाला न हो सके अर्थात् वह प्रत्यक्ष अद्वैत का विरोधी ही है । सर्वत्र बाह्य और अन्तरंग वस्तु में क्रिया कारकादिरूप कथंचित् भिन्न है क्योंकि उनके भिन्न प्रतिभासित्व की अन्यथानुपपत्ति है अर्थात् कथंचित् भेद के बिना भिन्न प्रतिभास ज्ञान नहीं पाया जाता है । इस प्रकार का अनुमान वाक्य भी पाया जाता है । अथवा "नाना जीवाः" इत्यादि आगम वाक्य भी पाया जाता है ।
यह सब प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम आदि विभ्रमाक्रांत नहीं हैं कि जिससे वे अद्वैत को विरुद्ध
1 संवेदनम् । ब्या० प्र० । 2 मूच्छित । दि० प्र० । 3 निमितत्व । निरंशत्वादेव । दि० प्र० ।
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