SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टसहस्री [ द्वि०प० कारिका २४ सर्वथा मायामयत्वासिद्धेः । न हि 'तत्प्रतिभासयोर्मायारूपत्वं, स्वसंवेदनसिद्धत्वात् । नापि बहिः सव्व्यादिरूपयोर्मायास्वभावत्व',व्यभिचारित्वाभावात् । तद्विशेषाकारयोर्मायारूपत्वमिति चेन्न, तद्विविक्तवस्तुव्यतिरेकेण मायायाः संभवाभावात् । तथा क्रियाकारकभेदप्रपञ्चाकारविविक्तपरब्रह्मव्यतिरेकेणाविद्यायाः संभवाभावे कथं वेदान्तवादिनामविद्यातः कार्यस्याविद्यात्मनो जनने स्वस्मादेव स्वस्य जन्म न भवेत् ? तच्च प्रमाणविरुद्धं न शक्यं व्यवस्थापयितुं नैरात्म्यवत् । अद्वैतवादी-ऐसा नहीं हो सकता है। जैन-तब तो अविद्यात्मक कारण से अविद्यात्मक कार्य की उत्पत्ति भी कैसे हो सकती है ? अर्थात् अविद्या भी असत्रूप है और उससे उत्पन्न हुये कार्य भी असतरूप हैं और असत् से असत् की उत्पत्ति मानना हास्यास्पद ही है। ब्रह्मवादी-इंद्रजालिया आदि खेलों में मायामय-असत्यरूप अग्नि आदि से मायामय ही धूमादि उत्पन्न होते हुये देखे जाते हैं अतः कोई दोष नहीं है । जैन-नहीं, वहाँ भी अग्नि और धूमादि में सर्वथा मायामयत्व (असत्यता) असिद्ध है क्योंकि उन दोनों का प्रतिभास असत्यरूप नहीं है क्योंकि वह स्वसंवेदन से सिद्ध है एवं बाह्य सद्व्यादि रूप में भी असत्यपना नहीं है क्योंकि उसमें व्यभिचारीपने का अभाव है अर्थात् सभी वस्तुओं को "सत्रूप" तो आप वेदांतियों ने भी माना है अतः सत्रूप से व्यभिचार दोष किसी में भी नहीं आयेगा। अद्वैतवादी-उस विशेषाकाररूप अग्नि और धूम में मायारूपता है । जैन-ऐसा नहीं कहना । उससे भिन्न वस्तु को छोड़कर माया ही असंभव है। अर्थात् विशेषाकार से भिन्न-रहित वस्तु को छोड़कर माया नाम को और कोई चोज नहीं है क्योंकि विशेषरहित केवल सामान्य रह ही नहीं सकता है अतएव वह मायारूप-असत्य ही है। उसी प्रकार से क्रिया कारक भेद के प्रपंचाकार से रहित आपका परमब्रह्म है और उस परमब्रह्म को छोड़कर अविद्या ही संभव नहीं है अर्थात् वह आपका परमब्रह्म हो अविद्यारूप सिद्ध हो जाता है और जो आपने पर को अविद्या कहा है वह अविद्या स्वरूप परमब्रह्म ही "पर" सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार से आप वेदांतवादियों के यहाँ अविद्यारूप परमब्रह्म से क्रियाकारक आदि अविद्यात्मक कार्य का जन्म होने पर स्वयं से स्वयं का जन्म कैसे नहीं होगा ? अर्थात् होगा ही होगा। जो कि प्रमाण से विरुद्ध है । नैरात्म्यवाद के समान उसकी व्यवस्था करना शक्य नहीं है। 1 पावकः धूमज्ञानयोः । दि० प्र० । 2 पावकधूमयोः । दि० प्र०। 3 स चासौ पावकधूमरूपविशेषस्तदाकारतया । ब्या० प्र०। 4 विशेषाकारापृथकवस्तु रहितत्वेन मायाया: संभवो नास्ति किन्तु विशेषविविक्तवस्तु एव माया। दि० प्र०। 5 पावकधूम । व्या० प्र० । 6 वस्तुव्यतिरिक्ततुच्छस्वभावरूपमायाया वेदान्तिनापि बहुधानिराकरणात् । दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy