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ब्रह्माद्वैतवाद का खण्डन ]
तृतीय भाग
[ ५
तस्य' जन्म युज्यते ? कथं च कार्यादभिन्नस्य ब्रह्मणोऽकार्यत्वम् ? 2 यतो नित्यत्वं स्यात् । परस्माज्जायते इति द्वैतसिद्धिः, 'पुरुषात्परस्य क्रियाकारकभेदहेतोरभ्युपगमात् । परस्यानाद्यविद्यारूपत्वादकिञ्चिद्रूपस्य द्वितीयत्वायोगान्न द्वैतसिद्धिरिति चेत्कथमकिंचिद्रूपस्य कारणत्वम् ? 'कार्यस्याप्यकिंचिद्रूपत्वाददोष इति चेत्किमिदानीं ' खरविषाणादश्वविषाणस्य जन्मास्ति ? नेति चेत्कथमविद्यात्मनः कारणादविद्यात्मक कार्यस्योत्पत्तिः ? माहेन्द्रादिषु मायामयादेव 'पावकादेस्तथाविधधूमादिजन्मदर्शनाददोष इति चेन्न, " तत्रापि पावकधूमाद्योः
क्रिया कारक भेद का प्रपंच कादाचित्क है । और जो अजन्मा है वह कादाचित्क - कभी - कभी नहीं होता है जैसे आत्मा और ये क्रियाकारक भेद कादाचित्क हैं, इसीलिये इनमें अजन्मा का सद्भाव नहीं पाया जाता है। यदि आप उस अद्वैतैकांत के विषय में इस क्रिया - कारक भेद के प्रपंच को जन्मवान् कहें, तब तो फिर किससे जन्म हुआ यह कहना चाहिये ।
अद्वैतवादी - परम पुरुष से ही उन भेदों का जन्म हुआ है । जैन - तब तो अद्वैत की सिद्धि कैसे हुई ? प्रसिद्ध ही है ।
क्योंकि कारण और कार्य दो होने से इनमें द्वैत
ब्रह्माद्वैतवादी - जो क्रिया आदि कार्य हैं वे ब्रह्मा से अभिन्न ही हैं इसलिये अद्वैत ही है । जैन - यदि ऐसी बात है तो अपने से ही उस ब्रह्म का जन्म कैसे युक्त हो सकेगा ? एवं कार्य से अभिन्न वह ब्रह्म अकार्यरूप भी कैसे हो सकेगा ? जिससे कि आप उसे नित्य सिद्ध कर सकें ।
अद्वैतवादी - वे क्रियादि कार्य पर उत्पन्न होते हैं ।
जैन - तब तो द्वैत की सिद्धि हो गई, क्योंकि परम पुरुष से भिन्न ही अन्य. को क्रिया कारक का भेद उत्पन्न करने वाला आपने स्वीकार कर लिया ।
अद्वैतवादी - पर तो अनादि अविद्यारूप है और उस अकिंचित् रूप निःस्वरूप में द्वितीयपने का अभाव है । अतः द्वैत की सिद्धि नहीं हो सकती है ।
जैन - तब तो जो निःस्वरूप है वह कारण भी किसी को उत्पन्न करने का कैसे सिद्ध होगा ? अद्वैतवादी -- हमारे यहाँ क्रियाकारक भेदरूप कार्य भी तो निःस्वरूप ही हैं अतः कोई दोष
नहीं है ।
जैन --- यदि ऐसी बात है तो क्या इस समय गधे के सींग से घोड़े के सोंगों का जन्म होता है ?
1 ब्रह्मणः । दि० प्र० । 2 यतः कुतो नित्यत्वं स्यात् । अपितु अनित्यमेव । ब्रह्मणः कार्यत्वम् च । दि० प्र० ।
3 ब्रह्मणः । व्या० प्र० । 4 ता । कारणस्य । दि० प्र० । 5 अकिञ्चिद्रूपकारणाज्जातं यत्कार्यं तदपि अकिञ्चिद्रूपं भवतु को दोषोत्र न कोपि । दि० प्र० । 6 परस्यानाद्यविद्यारूपस्य । दि० प्र० 1 7 तहिं । दि० प्र० । 8 हि ब्या० प्र० । 9 मायामय । दि० प्र० । 10 मा इन्द्रादिषु । दि० प्र० ।
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