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अष्टसहस्री
[ द्वि० ५० कारिका २४ तद्वदेकमपि परब्रह्म सकलक्रियाकारकभेदात्मकतया न विरोधमध्यास्ते' तथा प्रतिभासवैचित्र्येप्येकत्वाव्याघाताच्चित्रज्ञानवदित्यपरः ।
[ जैनाचार्या अद्वैतपक्षं निराकुर्वन्ति । ] सोप्येवं प्रष्टव्यः ।--क्रियाकारकभेदप्रपञ्चः किमजन्मा जन्मवान्वा ? न तावदजन्मा, कादाचित्कत्वात्, यस्त्वजन्मा स न कादाचित्को यथात्मा, कादाचित्कश्चायं, तस्मानाजन्मेति बाधकसद्भावात् । जन्मवांश्चेत्कुतो जायते इति वक्तव्यम् ? परमपूरुषादेवेति चेत्कथमद्वैतसिद्धिः? कारणकार्ययोद्वैतप्रसिद्धः। क्रियादिकार्यस्य ब्रह्मणोनन्यत्वादद्वैतमेवेति चेत्कथं स्वस्मादेव
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भेद विरुद्ध नहीं है, एक ही वृक्ष में युगपत् अथवा क्रम से कर्ता आदि अनेक कारकों की प्रतीति हो रही है । यथा
वृक्षस्तिष्ठति कानने कुसुमिते वृक्षं लताः संश्रिताः । वृक्षणाभिहतो गजो निपतितो वृक्षाय देयं जलं ।। वृक्षादानय मंजरी कुसुमितां वृक्षस्य शाखोन्नता ।
वृक्षे नीडमिदं कृतं शकुनिना हे वृक्ष ! कि कंपसे ।। अर्थ-फूले हुए वन में "वृक्ष" है। लताओं ने वृक्ष का आश्रय लिया है। वृक्ष के द्वारा गिरा हआ हाथी मर गया । वृक्ष को जल देना चाहिये । वृक्ष से फूली हुई मंजरी को लावो । वृक्ष की ऊंचीऊंची शाखायें हैं । वृक्ष में पक्षियों ने घोंसला बना लिया है। हे वृक्ष! तुम क्यों कांपते हो? इत्यादिरूप से एक वृक्ष में सभी कारक पाये जाते हैं।
उसी प्रकार से क्रिया का भिन्नपना भी एक में ही विरुद्ध नहीं है। देशादि की अपेक्षा से गमनागमन अथवा स्थान शयन एक साथ भी देखे जाते हैं।
तथैव एक भी परब्रह्म सकल क्रिया और कारकों के भेदात्मकरूप से विरोध को प्राप्त नहीं होता है, प्रतिभासों की विचित्रता होने पर भी उस परम ब्रह्म के एकत्व का व्याघात नहीं होता है। जैसे कि प्रतिभास की विचित्रता होने पर भी चित्रज्ञान का एकत्व विरुद्ध नहीं है। इस प्रकार से हम (जैनाचार्य) अद्वैतपक्ष का निराकरण करते हैं।
जैन-आप अद्वैतवादियों से भी हम ऐसा प्रश्न करते हैं कि यह क्रिया कारक भेद का प्रपंच अद्वैतकांत के विषय में क्या अजन्मा है या जन्मवान ? "अजन्मा तो हो नहीं में सकता क्योंकि वह
1 प्राप्नोति । दि० प्र०। 2 ब्रह्मणः क्रियाकारकभेदेन नानात्वेपि ऐक्यव्याघातो नास्ति । यथा चित्रज्ञाने वणे न नानात्वमपि ज्ञानापेक्षया एकत्त्वम् । दि० प्र० । 3 नन्विदमित्यारभ्यावादीत्परोद्वैती। ब्या० प्र०। 4 सोप्यद्वैतवादी इत्थं पर्यनयोक्तव्यः। दि० प्र० । 5 क्रियाकारकभेदप्रपञ्च: पक्षोऽजन्मा न भवतीति साध्यो धर्म: कादाचित्कवात् । यस्त्वजन्मा स न कादाचित्कः । यथा पुरुषः कादाचित्कश्चायं । तस्मान्नाजन्मा। दि० प्र०। 6 अपथकत्वात् । दि० प्र०।
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